४५ अध्याय ५ यदि मानव संस्कृति - राजनीति, दर्शन, कलाएँ, आदि--के इतिहास को उपवर्गों में विभक्त करनेवाली कोई युग श्रेणी सुलभ हो भी, तो साहित्यिक इतिहास के लिए कोई ऐसी योजना अग्राह्य होगी, जो नाना उद्देश्योंवाली विविध सामग्रियों पर अवलंबित हो । साहित्य किसी दशा में मनुष्य-जाति के राजनीतिक, सामाजिक या बौद्धिक परिणमन का भी निश्चेष्ट प्रतिबिम्ब या अनुकरण नहीं माना जा सकता । फलतः साहित्यिक युग तो साहित्यिक प्रतिमान के आधार पर ही स्थापित हो सकता है । यदि साहित्यिक इतिहासकार के निष्कर्ष राजनीतिक, सामाजिक, कला तथा शास्त्र विषयक निष्कर्षों से मेल खाते हों, तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। किंतु साहित्यिक इतिहासकार का प्रारंभ-स्थल तो साहित्य का साहित्य के रूप में परिणमन ही हो सकता है । अतः युग सार्वभौम परिणमन का उप-खंड मात्र है। उसका इतिहास मूल्यों की परिवर्त्तनीय योजना के प्रसंग में ही लिखा जा सकता है, और यह भी सत्य है कि मूल्यों की ऐसी योजना को इतिहास से ही पाया जा सकता है । इस प्रकार युग एक काल खंड है, जिसमें साहित्यिक स्वरूपों, प्रतिमानों और रूढ़ियों के ऐसे पद्धति विशेष का प्राधान्य हो, जिसके आविर्भाव, विस्तार, वैविध्य, समन्वय और तिरोभाव निर्धारित किये जा सकें । इसका अवश्य यह अर्थ नहीं है कि स्वरूपों की इस पद्धति को स्वीकार करने के लिए साहित्यिक इतिहासकार बाध्य है। इसे इतिहास से ही प्राप्त करना आवश्यक है : इसे वास्तव रूप में वहीं आविष्कृत करना वांछनीय है। उदाहरणार्थ, रोमांटिसिज्म कोई ऐसी केंद्रित विशेषता नहीं है, जो संक्रामक रोग की तरह फैलती हो, न वह शाब्दिक नाम मात्र है । वह एक ऐति- हासिक कोटि है, विचारों की एक संपूर्ण प्रणाली, जिसके सहारे ऐतिहासिक प्रक्रिया की व्याख्या की जा सकती है। किंतु विचारों की यह योजना मिली है ऐतिहासिक प्रक्रिया में ही । 'युग' शब्द का यह विभावन प्रचलित धारणा से भिन्न है, जो उसे ऐतिहासिक प्रसंग से पृथक्करणीय एक मनोवैज्ञानिक प्रकार में विस्तीर्ण कर देती है । प्रचलित ऐतिहासिक व्यपदेशों का, मनो- वैज्ञानिक या कलात्मक प्रकारों के लिए, व्यवहार न हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, किंतु यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि साहित्य का ऐसा प्रकार विज्ञान सीमित अर्थ में साहित्यिक इतिहास के लिए विशेष उपयोगी नहीं है । अतः युग प्रकार या वर्ग नहीं है, बल्कि ऐसे स्वरूपों की एक विशेष प्रणाली से परि भाषित काल खंड है, जो ऐतिहासिक प्रक्रिया में कीलित होते हैं और उससे अलग नहीं किये जा सकते । छायावाद या 'रोमांटिसिज्म' ११ को परिभाषित करने के जो अनेक विफल प्रयत्न हुए हैं उनसे प्रमाणित होता है कि युग ऐसा विभावन नहीं है, जिसकी तुलना तर्क-शास्त्र के किसी 'वर्ग' से की जा सके । ऐसा होता तो प्रत्येक अलग-अलग कृति इसके अंतर्गत परि- गणनीय हो जाती । किंतु यह तो स्पष्ट ही असंभव है । कोई खास कला - कृति वर्ग विशेष में एक दृष्टांत नहीं है, बल्कि ऐसा अंश है, जो अन्य समस्त कृतियों के साथ, युग-विशेष का विभावन पूरा करती है । छायावाद या 'रोमांटिसिज्म' में अनेकरूपता दिखलाना या उनकी बहुविध परिभाषाएँ प्रस्तुत करना, इनकी जटिलता द्योतित करने के कारण जितने भी महत्त्वपूर्ण माने जायँ, सैद्धांतिक दृष्टि से भ्रांतिपूर्ण प्रतीत होते हैं। यह स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है कि कोई युग आदर्श प्रकार, अथवा अमूर्त्त संस्थान, अथवा वर्ग-विभावन की श्रेणी नहीं है, ।
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