४१ अध्याय ५ प्रकार तत्त्व-विशेष को पृथक् कर उसका इतिहास प्रनिखित किया गया है - यह दूसरी बात. है कि ये बृहत् पुस्तकें छंद और लय के संबंध में लेखक के अस्पष्ट और लुप्तप्रयोग विभावन पर अवलंबित हैं और इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि समुचित इतिहास तब तक नहीं लिखा जा सकता जब तक प्रकरण की पर्याप्त योजना विद्यमान न हो । अगर आज कोई हिंदी की काव्य-भाषा का इतिहास लिखना चाहे, तो उसे इसी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि इस विषय पर छोटे-मोटे निबंधों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, और कोई हिंदी काव्य-चित्र का इतिहास लिखने बैठे, तब तो उसे शायद पूर्व-निर्दिष्ट थोड़ा भी विवरण नहीं मिलेगा 1 वस्तुतः पाश्चात्य भाषाओं में भी इन पर विशेष कार्य नहीं हुआ है । इसी प्रकार के अंतर्गत वर्ण्य वस्तु तथा कथानक-रूढ़ियों के अध्ययनों को भी वर्गीकृत करना उचित समझा जा सकता है, किंतु वस्तुतः ये भिन्न समस्याएँ हैं। किसी कथा के विभिन्न रूप उस तरह अनिवार्यतः संवद्ध या अविच्छिन्न नहीं होते, जिस तरह छंद या काव्य-भाषा । उदाहरण के लिए, हिंदी साहित्य में पद्मावती की कथा समस्त रूपों का प्रलेखन भारतीय इतिहास की दृष्टि से एक उपादेय समस्या हो सकती है, और प्रसंगतः साहित्यिक रुचि के इति- हास – काव्य रूप में परिवर्तन के इतिहास - को भी उदाहृत कर सकती है। किंतु इसकी अपनी कोई योजना या संगति नहीं हो सकती । यह एक कोई समस्या उपस्थित नहीं करती -- विवेचना- त्मक समस्या तो अवश्य नहीं ।" वस्तु-विवरण” न्यूनतम साहित्यिक इतिहास होता है । साहित्यिक स्वरूपों और प्रकारों का इतिहास एक दूसरी ही कोटि की समस्याएँ उपस्थित करता है । किंतु ये समस्याएं असमाधेय नहीं हैं । यद्यपि कोचे ने इस संपूर्ण विभावन को ही निरर्थक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, तथापि इस सिद्धांत के आधार प्रस्तुत करनेवाल अनेक अध्ययन सुलभ हैं, जो स्वयं ही उस सैद्धांतिक अंतर्दृष्टि को संकेतित करते हैं, जो विशंद इतिहास के प्रलेखन के लिए आवश्यक है । स्वरूप की समस्या इतिहास मात्र की समस्या है : प्रकरण ( यहाँ स्वरूप ) की योजना के उद्घाटन के लिए इतिहास का अध्ययन आवश्यक है; किंतु हम इतिहास का अध्ययन कर ही नहीं सकते, यदि हमारे मन में पृथक्करण की कोई योजना वर्त्तमान नहीं है । फिर भी यह तर्क-वृत्त, व्यवहार में, दुस्तर नहीं है। उदाहरण के. लिए, अनुष्टुप् या दोहा-चौपाई में वर्गीकरण की स्पष्ट बाह्य योजना ( चरणों की संख्या तथा निश्चित अंत्यानुप्रास) प्रारंभ-स्थल को सुलभ कर देती है; जहाँ तक महाकाव्य-जैसे उदाहरण का प्रश्न है, एक सामान्य भाषामूलक आधार के अतिरिक्त इस स्वरूप के इतिहास को एक साथ बाँध रखनेवाला शायद दूसरा कोई तत्त्व नहीं है । भारवि का किरातार्जुनीय और माघ का शिशुपालवध एक दूसरे से अप्रभावित महाकाव्य हो सकते हैं, किंतु उनका सामान्य वंशागम रामायण-महाभारत - रघुवंशादि में देखा जा सकता है और बीच की जोड़नेवाली कड़ियों का, ऊपर से भिन्न लगनेवाली परंपराओं और युगों के बीच के सातत्य का निर्देश हो सकता है । अतः साहित्यिक इतिहास के लिए स्वरूपों का इतिहास अतिशय संभावनापूर्ण क्षेत्र सिद्ध हो सकता है । इस आकृतिमूलक पद्धति का प्रयोग लोक वार्ता के अध्ययन के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध हो सकता है, जिसमें कलात्मक साहित्य की अपेक्षा स्वरूप बहुधा अधिक स्पष्टता से प्रत्यभिज्ञेय होते हैं। यह पद्धति इस क्षेत्र में उतनी महत्त्वपूर्ण तो अवश्य ही होगी, जितनी कथानक रूढ़ियों
पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।