अध्याय ५ ३५ साहित्यशास्त्रीय निकष से ही संतुष्ट हो जाते हैं, जो बाहरी और ऊपरी कौशल पर ही अधिक ध्यान देने के कारण सर्वथा अपर्याप्त है, या पाठक पर कला-कृति विशेष के प्रभावों के वर्णन के लिए हम ऐसी भाषा का इस रूप में व्यवहार करते हैं, जो कृति से अंतस्संबद्ध होने में असमर्थ है । दूसरा कारण यह पूर्वाग्रह है कि साहित्यिक इतिहास संभव ही नहीं है, यदि किसी अवांतर मानवीय क्रिया के माध्यम से हैतुकी व्याख्या न की जाय । तीसरी कठिनाई है साहित्य-कला के विकास के संपूर्ण आधान को लेकर । पश्चिम में, जहाँ इतिहासशास्त्र का स्वतंत्र विकास हुआ है, चित्र कला या संगीत-कला के आभ्यंतर इतिहास की संभावना में शायद ही किसी को संदेह हो । उदाहरण के लिए, यदि हम किसी चित्र दीर्घा में जायँ तो हमें चित्र काल क्रमानुसार या वादों की दृष्टि से टँगे हुए मिलते हैं और यह स्पष्ट हो जाता है कि चित्र कला का एक ऐसा इतिहास है जो चित्रकारों के इतिहास या पृथक्-पृथक् चित्रों के परिशंसन या मूल्यांकन से सर्वथा भिन्न है । यह स्थिति, अवश्य पश्चिम में ही, संगीत कला की भी है । जब संगीत- लेख कालक्रमानुसार प्रस्तुत किये जाते हैं, तब संगीत का ऐसा इतिहास स्पष्ट हो जाता है, जिसका कोई संबंध न तो संगीतकारों की जीवनियों से रहा है, न उन सामाजिक परिस्थितियों से, जिनमें संगीत-कृतियाँ तैयार हुईं, न अलग-अलग कृतियों के परिशंसन से | चित्र कला, मूर्त्ति-कला और संगीत-कला के ऐसे इतिहास बहुत दिनों पहले से ही पश्चिम में लिखे जाते रहे हैं और पश्चिमी विद्वानों के द्वारा भारतीय चित्र और मूर्त्ति-कला के भी ऐसे कुछ इतिहास लिखे गये हैं, और कुछ उनके दिखाये रास्ते पर चलनेवाले बाद के भारतीय विद्वानों के द्वारा भी । साहित्यिक इतिहास की समस्या है कि साहित्य का एक कला के रूप में ऐसा इतिहास लिखा जाय, जो यथासंभव सामाजिक इतिहास, लेखकों की जीवनियों, या अलग-अलग कृतियों के परिशंसन से अलग हो । इस सीमित अर्थ में साहित्यिक इतिहासकार की अपनी कठिनाइयाँ हैं । एक चित्र कृति की तुलना में, जिसे एक नजर में देखा जा सकता है, साहित्य की कोई कला-कृति कालानुक्रम द्वारा ही प्राप्य है । फलतः उसे अखंड इकाई के रूप में ग्रहण करना कठिन हो जाता है, हालाँकि संगीत-कृति के साम्य के आधार पर यह भी मानना पड़ेगा कि काला- नुक्रम में ही अवधारणीय होने पर भी एक परिरूप ( पैटर्न) संभव तो है ही । खास तरह की कठिनाइयाँ और भी हैं । चूँकि साहित्य का माध्यम, भाषा, दैनंदिन भाव-प्रेषण का भी माध्यम है, और विशेषरूप से विभिन्न शास्त्रों और विज्ञानों का भी, इसलिए उसमें सामान्य कथनों से होते हुए अतिशय संघटित कला - कृति तक क्रमिक रूप से परिणति होती है । परिणामतः एक साहित्यिक कृति के कलात्मक संस्थान को अलग करना अपेक्षया कठिनतर कार्य है। किंतु यहाँ भी उत्तर यह हो सकता है कि किसी चिकित्सा-शास्त्र-विषयक पुस्तक में भी तो चित्र रहता है और प्रयाण-गीत जैसी चीज भी तो होती है, जिनसे प्रमाणित होता है कि अन्य कलाओं के भी सीमा रेखीय पक्ष होते हैं और कि शब्दाश्रित कृति में कला और अकला का भेद करने की कठिनता केवल परिमाणतः ही अधिक है । और कुछ ऐसे विचारक भी हैं, जो मानते ही नहीं कि साहित्य का भी कोई इतिहास होता है या सकता है। शोपेनहार का कहना था कि कला सदैव अपने लक्ष्य तक पहुँची है,
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