जिसकी रचना-भूमि पर अगणित बर्बर आक्रमण होते रहे, उसके कालानुक्रम की अनिश्चयता अस्वाभाविक नहीं कही जा सकती।
इससे अधिक कठोर सत्य तो यह है कि भारतीय साहित्येतिहास के तिथि-क्रम को उन पाश्चात्य विद्वानों ने जाने-अनजाने अनिश्चित तथा संदिग्ध बनाने में योग दिया, जिनके प्रति हम इसलिए सदा कृतज्ञ रहेंगे कि उन्होंने अपने से पहले के विदेशी शासकों की तरह यहाँ के साहित्यिक अवशेषों को नष्ट करने के बदले उनका अध्ययन, संरक्षण. और मुद्रण किया और अधिक-से-अधिक जो अनुचित किया, वह यह कि उनसे अपने देशों के संग्रहालय समृद्ध बनाये। जब वितरनित्ज कहते हैं कि '.... the safest dates of Indian history are those which we do not get from the Indians themselves', और विश्वसनीय तिथियों के लिए हमें यूनानी और चीनी यात्रियों का भरोसा करना चाहिए, तो वे वस्तुतः उस कारण का उद्घाटन कर देते हैं, जिससे भारतीय साहित्येतिहास के कालानुक्रम की जटिलता जटिलतर हो गई है। साहित्येतर इतिहास के विषय में पूर्व के अध्याय-विशेष में परंपरा से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री के महत्त्व का निर्देश किया गया है, जिसे पार्जिटर ने भी मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। यूनानी स्रोतों के आधार पर 'सैंडाकोटस' को, चंद्रगुप्त मौर्य को, सिकंदर का समकालीन मानकर साहित्येतर, तथा अनिवार्यतः साहित्यिक भी, भारतीय इतिहास को ३१५ ई०-पू० के पहले और बाद में बिठाने का जो प्रयास पाश्चात्य विद्वानों ने किया है, वह विलक्षणतापूर्ण होते हुए भी, पुनः-पूनः परीक्षणीय है, यह मेरा संदेह विश्वास में परिणत हो चला है, यद्यपि इसके लिए आधार ढंढना इतिहासज्ञों का काम है|
परंपरा की उपेक्षा पाश्चात्यों ने एक दूसरे प्रकार से भी की है। वे आज तक कालिदास का समय निश्चित नहीं कर पाये हैं, तो इसका कारण यह है कि वे उन्हें ५७ ई० पू० के विक्रम का समकालीन मानने से इनकार करते रहे हैं, यद्यपि निश्चित परंपरा यही है । भाषा और शैली जैसे तथाकथित अंतस्साक्ष्यों और अनेक बहिस्साक्ष्यों के चक्कर में पड़कर कालिदास का समय यदि सदा के लिए असमाधेय-सा हो गया है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या! वेदों, रामायण, महाभारत, पुराणों तथा बाद के लेखकों और कृतियों के बारे में जो निस्संदिग्ध परंपरा-प्राप्त तिथि-क्रम मान्य होना चाहिए था, उसे एकबारगी अविश्वसनीय और निराधार घोषित कर पाश्चात्यों ने हमारे लिए जो समस्या उत्पन्न कर दी है उसका समाधान हमें नये सिरे से ढूंढ़ना है।
तिथि-क्रम का यह अनिश्चय भी सामान्यतः छठी शताब्दी के पहले के ही साहित्येतिहास में पाया जाता है। बाद के लेखक, जैसा स्वयं वितरनित्ज ने ठीक ही कहा है, ५ बहुधा अपना और पिता तथा गुरु का नाम, अपने वंश तथा प्रतिपालक आदि का विवरण अपनी कृतियों में देते हैं । लेखक कभी-कभी रचना-काल का भी निर्देश करते हैं, यद्यपि साधारणतः वह प्रतिपालक नरेश के काल से ही निर्धारणीय होता है यदि वही अज्ञात हो तो कठिनाई बनी रह जाती है, यद्यपि यह साहित्येतर इतिहास की अपूर्णता का परिणाम होता है।
किंतु परंपरा की उपेक्षा से भी अधिक असेवा तो प्राचीन कवियों के विषय में प्रचलित किंवदंतियों की उपेक्षा के कारण हुई है। प्राचीन साहित्य के इतिहास के अध्ययन के लिए