पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/२३

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अध्याय ३ साहित्यिक इतिहास की प्राचीन भारतीय परंपरा : संस्कृत में चीन भारतीयों द्वारा लिखित साहित्येतर इतिहास में कालानुक्रम का कोई अभाव नहीं मा है, भले ही वह आज अनेक कारणों से यत्र-तत्र अस्पष्ट तथा संदिग्ध प्रतीत होता हो। इस संबंध में पाश्चात्यों की आलोचना निराधार है। कालानुक्रम का वास्तविक अभाव नो साहित्यिक इतिहास में है । डब्लू० डी० ह्विटनी ने कहा है pins set up to le "All dates given in Indian literary history are bowled down again."" वेद, रामायण, महाभारत, पुराण तथा भास, कालिदासादि के समय के संबंध में जो मतभेद और अनिश्चय है, वह सर्वविदित है। वितरनित्ज का निष्कर्ष है कि "It is much better to recognise clearly the fact that for the oldest period of Indian literary history, we can give no certain dates, and for the later periods only a few. . . . Even to-day the views of the most important investigators with regard to the age of the most important literary works, differ, not indeed by years and decades, but by whole centuries, if not even by one or two thousand years." " वितरनित्ज तथा अन्य पाश्चात्य लेखकों की दृष्टि में इस अनिश्चय के कारणों में ये बातें उल्लेख्य हैं जो अत्यंत प्राचीन साहित्य है, वह लेखक-विशेष की रचना के रूप में ज्ञात न होकर वंश, संप्रदाय अथवा किसी प्राचीन ऋषि के नाम से प्रसिद्ध है, बाद में, जब रचनाएँ लेखकविशेष की पाई जाने लगती हैं, तब भी लेखक का वंश-नाम ही निर्दिष्ट रहता है। व्यक्तिनाम के बदले वंश-नाम से यह कहना कठिन हो जाता है कि, उदाहरणार्थ, कालिदास महाकवि कालिदास हैं या अन्य कोई कालिदास; एक ही लेखक-नाम के विभिन्न रूप भी पाये जाते हैं। यदि किसी लेखक को अपनी कृति का व्यापक प्रचार और प्रामाण्य अभीष्ट है, तो वह अपना नाम न देकर किसी प्राचीन ऋषि का नाम अपनी कृति के साथ जोड़ देता है-एकाधिक परवर्ती उपनिषदें और पुराण इसके उदाहरण हैं; और कृति-स्वामित्व या 'स्वत्वाधिकार के प्रति अतिशय उदासीनता तथा निर्लिप्तता । प्राचीन भारतीय ग्रंथों तथा लेखकों के कालानुक्रम की अनिश्चयता कुछ अंशों में ही वास्तविक अनिश्चयता है, और जिस साहित्य का इतिहास अनेक-सहस्र-वर्ष-व्यापी है और