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अध्याय १३ ११७ इस कथन की क्या सहज ही उपेक्षा की जा सकती है ! -“किसी युग, सप्ताह या दिवस में जो जीवन वस्तुत: जिया जाता है, वह ऐसे सूक्ष्म तत्त्वों और असंप्रेषित, असंप्रेष्य तक अनु- भवों से बना होता है, जो समस्त आलेखों को चकमा दे जाते । जो कुछ भी बचता है, संयोग से ही बचता है । ऐसे आधार पर मैं समझता हूँ, वैसे ज्ञान तक पहुँचना असंभव है, जो इतिहास के 'दर्शन' के विचार में अंतर्निहित है । ऐतिहासिक युगों पर आरोपित प्रवृत्तियों, 'अर्थो' और 'गुणों' के बारे में यह भी कहना रह जाता हैं, वे उन्ही युगों में सर्वाधिक परि- लक्षित होते हैं, जिनका हमने न्यूनतम अध्ययन किया है ।... किंतु यद्यपि 'युग' सदोष विभावन है, फिर भी वे पद्धतिक अनिवार्यता हैं ।"" वस्तुतः उद्धृत रूप-रेखा को देखते हुए बृहत् इतिहास के बारे में सूक्ष्मतापूर्वक विचार करना ही अनावश्यक है । अद्यावधि हिंदी साहित्य का ही क्यों, भारत का सांस्कृतिक इतिहास मात्र प्रत्नान्वेषकों का, न कि इतिहासकारों का, क्षेत्र रहा है । यदि पूर्णतः नहीं, तो आंशिक रूप में इसका कारण यह अवश्य है कि इसके लिए आवश्यक आधारभूत सामग्री का बहुलांश पुस्तकालयों, भांडारों तथा व्यक्तिगत संग्रहों में दबा और छिपा पड़ा रहा है और आज भी वह संतोषजनक रूप से सूचीबद्ध नहीं हुआ है । राज-पुस्तकालयों, धार्मिक संप्रदायों के भंडारों, मठों तथा साहित्यानुरागियों के संग्रहों में आज भी हिंदी साहित्य के विभिन्न युगों की प्रभूत सामग्री बिखरी हुई है और उसका एक बड़ा अंश तो नष्ट हो गया है या नष्टप्राय है । जो सामग्री बच्ची होगी, वह भी कम नही है, और यह जैन- भांडारों के प्रकाशित होनेवाले सूची-पत्रों से सहज अनुमेय है, तो यह भी सत्य है कि देशी नरेशों तथा जमींदारों के उन्मूलन के साथ ही साथ सांस्कृतिक महत्त्व की विपुल और महार्घ सामग्री नष्ट होने के लिए छोड़ दी गई है । कभी आततायियों ने ऐसी अपार सामग्री अग्निसात् कर अपनी पाशविकता का परिचय दिया था; हमने एक ही वैधानिक हस्ता- वलेप से सामंतों के अधिकार और धन, कोठियों और बाग-बगीचों का समाजीकरण तो कर दिया, किंतु घोर अदूरदर्शिता का प्रदर्शन करते हुए उनके दुर्लभ संग्रहों को उन्हींके भरोसे छोड़ दिया ! किंतु आज भी इधर-उधर पर्याप्त सामग्री बिखरी पड़ी है। अलग-अलग अनु- संधानकर्त्ताओं द्वारा इसकी खोज और जाँच पड़ताल होती रहती है। फिर भी इस सामग्री के विवरणों के अभाव के कारण, इतिहास अवरुद्ध हुआ है, और कभी-कभी विकलांग भी । पुस्तकालयों के सूची- पत्रों का महत्त्व हमने आज भी नहीं समझा है । विश्वविद्यालयों और शोध संस्थाओं के तथा सार्वजनिक पुस्तकालयों के सूची- पत्रों को देखकर इस तथ्य का सहज ही अनुमान किया जा सकता है । यह नहीं कि भारत में भी इस दृष्टि से अपवाद- स्वरूप पुस्तकालय नहीं है, किंतु यह भी सत्य है कि हिंदी के ऐसे अपवादस्वरूप पुस्तकालय बहुत कम हैं : हाल-हाल तक राष्ट्रीय पुस्तकालय तक का हिंदी - विभाग नितांत अव्यवस्थित और नागरी प्रचारिणी सभा, अखिलभारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन आदि के पुस्तकालयों तक के सूची - पत्र संतोषजनक नहीं हैं । पुस्तकालयों के सूची- पत्र साहित्यिक इतिहासकार के बहुत मामूली औजार लग सकते हैं, पर यह भी ठीक है कि इनके विना काम चल ही नहीं सकता । जिन पुस्तकालयों के सूची - पत्र नहीं होते, या होते हैं तो अपूर्ण और अप्रामाणिक, वे प्रत्नान्वेषकों के लिए ही महत्त्वपूर्ण होते हैं, इतिहासकार उनका लाभ नहीं उठा सकते । हमने अन्यत्र उल्लेख किया है कि टामस वार्टन ने अँगरेजी काव्य का इतिहास लिखने का तब निश्चय किया था जब अँगरेजी साहित्य का अतिशय समृद्ध हार्लियन संग्रह सूची बद्ध हो चुका था ।