________________
११६ साहित्य का इतिहास - दर्शन (४) सुभाषति और अनुवाद का विचार । (५) हास्यरस का काव्य । (६) रूपक - रचना और लीला, रास आदि का वाङ्मय । (७) गद्य - विचार - गद्य का प्रयोग, प्रयोजन, और स्वरूप । (८) अन्य वाङ्मय ( काव्येतर ) का सामान्य परिचय | (e) व्याकरण - विचार - उपभाषाओं के भेदक तत्त्व, पदावली आदि का विचार, परंपरा और काव्य- रूढ़ियाँ । (१०) रीति-काव्य एवं रीतिमुक्त काव्य का तुलनात्मक विचार | प्रथम भाग के अध्याय १ को ही देखें । साहित्य के इस इतिहास में पर्वत, नदी, जल- वायु, वनस्पति के साथ ही साथ जीव-जंतुओं का भी विवरण है; इसके बाद भारत के राज- नीतिक तथा सामाजिक इतिहास का सर्वेक्षण है; फिर वेश-भूषा; तब कहीं संस्कृति आदि साहित्यों का उल्लेख है; और तब आता है भारतीय धर्मों, दर्शनों तथा कलाओं का ऐतिह्य । यह साहित्येतिहास की नहीं, विश्व कोष की रूप-रेखा हो सकती थी । यह ठीक है कि साहित्य में जीव-जंतुओं के भी वर्णन होते हैं, किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि देश के जीव-जंतुओं का विस्तृत इतिहास साहित्य के इतिहास का अनिवार्य अंग बने । विश्व की किसी भी भाषा के नये-पुराने साहित्येतिहास विषयक ग्रंथ में यदि ऐसी 'ऐतिहासिक पीठिका' हो, तो उसे देखने का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हुआ है । हमने सुविधा के लिए, प्रथम भाग के अतिरिक्त बीच से दो और भाग ले लिये हैं- षष्ठ और सप्तम । सात-आठ सौ पृष्ठों की 'ऐतिहासिक पीठिका' को भी जैसे अपर्याप्त मानते हुए, इन दोनों भागों में भी अलग-अलग राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा कलाविषयक पृष्ठभूमि है, और पहले में संपूर्ण संस्कृत साहित्य - शास्त्र का इतिहास भी, जो अब हिंदी के भी एकाधिक ग्रंथों में सहज ही सुलभ है। इस बृहत् इतिहास की 'योजना' में दावा किया गया है। कि "इस संबंध में अँगरेजी तथा अन्य समृद्ध भाषाओं में प्रकाशित मालाओं का अवलोकन किया गया है। इनकी योजना और पद्धति यथासंभव अपनाई गई है ।" ऐसी स्थिति में हम यही कह सकते हैं कि हिंदी के बृहत् इतिहास के संपादक-मंडल ने अँगरेजी साहित्य के नवीनतम इतिहास, जो अभी अपूर्ण ही है, के संपादकों के इस कथन को अवश्य ही विचार के योग्य नहीं माना होगा- " विचारों का साहित्य पर ऐसा प्रभाव पड़ता है, जिसे अन्विष्ट किया जा सकता है, बहुधा पर्याप्त संभाव्यता के साथ, और कभी-कभी निश्चयपूर्वक | जब हम सामाजिक, राज- नीतिक और आर्थिक परिस्थितियों की ओर मुड़ते हैं, तब हम अपने को सर्वथा भिन्न स्थिति में पाते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं करता कि ये वस्तुएँ किसी लेखक की कृति को कम-से-कम उतना तो प्रभावित करती ही हैं, जितना विचार कर सकते हैं; किंतु यह प्रभाव सहज प्रत्य- भिज्ञेय नहीं होता । .. मनुष्यों की परिस्थितियों को उनके साहित्यिक उत्पादनों को साथ अतिशय निकटता के साथ संबद्ध करने के प्रयास, मैं मानता हूँ, साधारणत: असफल सिद्ध होते हैं ।" हिंदी के इस प्रस्तूयमान इतिहास में युग-विभाग के नाम पर जैसी बाल की खाल निकाली गई है, वह भारतीय मनीषा के ह्र सकालीन वर्गीकरण - प्रेम के सर्वथा अनुरूप है, और आज के विकसित वैदुष्य से अप्रभावित । युग - विभाजन पर पूर्वोक्त अँगरेजी साहित्येतिहास के संपादकों के