पृष्ठ:साहित्यालोचन.pdf/१८२

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१६१ गद्य-काव्य का विषेचन का ही उसेव हो। उसमें साहित्यिक रूप में जीवन के एक से अधिक अंगों के चित्र होने चाहिए और इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि आख्यायिका की सारी उसमता उसके कहने के ढंग पर निर्भर करती है। उसमें चरित्र या अनुभव के किसी एक ही पक्ष का विचार अथवा प्रदर्शन हो सकता है। अथवा उतनी अधिक और व्यापक याते भी बतलाई जा सकती है, जितनी अनेक साधारण उपन्यासों में भी नहीं पाई जाती । पर हो, यदि किसी छोटी सी आख्यायिका मै किसी व्यकि के सारे जीवन को सभी घटनाओं को भरने का उद्योग किया जायगा, तो यह पाठकों के लिये अश्विकर, होगा और पठित समाज में उसका आदर न हो सकेगा । इसी लिये हमने कहा है कि आमयायिका की उसमता उसके विषय तथा प्रतिपाइन- शैली पर ही निर्भर रहती है। दूसरी आवश्यक बात यह है कि उसके उद्देश्य, साधन और परिणाम आदि में सामंजस्य होना चाहिएः । अस्यायिका का उद्देश्य अथवा आधारभूत सिद्धांत एफ ही होना चाहिए और आदि से अंत तक उसी उद्देश्य या सिद्धांत का ध्यान रखकर और उसी का युक्तियुक्त परिणाम उत्पन्न करने के विचार से आभ्यायिका लिखी जामी चाहिए। उपन्यासों में इतनी अधिक परतें होती है कि उनसे को एक मुख्य सिद्धांत या परिणाम निकालना पायः कठिन हो जाता है। परंतु आख्यायिका के संबंध में यह बात नहीं होनी चाहिए । आस्थायिका में तो मुख्य विचार केवल एक