शब्दों की प्रचुरता होने से जैसे हमारी विशुद्ध हिन्दी कोई
भिन्न भाषा नहीं हो सकती वैसे ही फ़ारसी आदिक विदेशी शब्दों की प्रचुरता होने से उर्दू-नामधारिणी हिन्दी भी कोई भिन्न भाषा नहीं हो सकती । अथवा रोमन किंवा बंँगला अक्षरों में लिखी जाने से जैसे विशुद्ध हिन्दी अन्य भाषा नहीं मानी जा सकती वैसे ही फ़ारसी अक्षरों में लिखी जाने से उर्दू भी कोई अन्य भाषा नहीं मानी जा सकती। इससे अधिक स्पष्ट और कौन दृष्टान्त हो सकता है ?
जब से मुसलमानों ने इस देश में पदार्पण किया, तभी से फ़ारसी शब्द हिन्दी बोलचाल में आने लगे! शब्दों के मेल का आरम्भ नवीं शताब्दी में हुआ। यही अनुमान सम्भव जान पड़ता है। क्योंकि अँगरेजों के आगमन से यदि हिन्दी में उनकी भाषा के शब्द बोले जाने लगे तो मुसलमानों के आने पर उनकी भाषा के शब्द भी अवश्य बोले जाने लगे होंगे। परन्तु १६वीं शताब्दी तक उन शब्दों का प्रयोग लिखने में नहीं हुआ। मुसलमान बादशाहों ने राज्य के दफ्तरों की भाषा फ़ारसी ही रक्खी थी , अतः जिसे अब हम उर्दू कहते हैं उसके प्रयोग की कोई आवश्यकता ही न थी। १६००
ईसवी के पहले जो मुसलमान कबि हुए हैं उन्होंने हिन्दी ही में
कविता की है ; फ़ारसी के छन्दःशास्त्र के अनुकूल प्राय: एक
भी छन्द उन्होंने नहीं लिखा । जव से टोडरमल ने लगान-सम्बन्धी नये नियम प्रचलित किये और हिन्दू-अधिकारियों को फ़ारसी पढ़ने के लिए विवश किया, तभी से फ़ारसी शब्द