नहीं। परन्तु हमारे प्राचीन साहित्य की सामग्री बहुत ही
थोड़ी है।
हिन्दी साहित्य के माध्यमिक विभाग में उसकी विशेष उन्नति हुई। सूरदास, तुलसीदास, केशवदास, व्रजवासीदास,बिहारी लाल इत्यादि प्रसिद्ध कवि इसी समय हुए। यदि इनके ग्रन्थ निकाल लिये जाय तो हिन्दी भाषा के साहित्य में प्रायः शून्य ही रह जाय। इस काल में दो एक ऐसे भी कवि हुए हैं जिनकी भाषा तुलसीदास आदि की भाषा से नहीं मिलती। परन्तु इन कवियों की प्रयोग की गई भाषा ऐसी नहीं है कि वह चन्द्र की भाषा से मिलती हो । अतएव हिन्दी के प्राचीन साहित्य की भाषा के साथ उसे आसन नहीं दिया जा सकता । उसमें यद्यपि अन्तर है, तथापि उसका झुकाव माध्यमिक कवियों ही की भाषा की ओर है।
इसी समय नाभा जी ने अपना भक्तमाल बनाया। माध्यमिक काल में ब्रजभाषा ने यद्यपि कवियों पर अपना पूरा पूरा अधिकार जमा लिया था और उस भाषा में ऐसे ऐसे ग्रन्थ निकलने लगे थे जो सर्व-साधारण की समझ में आ जायं,तथापि नाभा जी में यह बात नहीं पाई जाती। उनकी कविता बहुत विलक्षण है। किसी किसी का तो यह मत है कि यदि कृष्णदास और प्रियादास भक्तमाल की टीका न बनाते तो नाभा का भावार्थ समझने में बड़ी ही कठिनता उपस्थित होती । दुर्दैववश ये टीकायें भी विशेष सरल नहीं, तथापि मूल का आशय समझने में थोड़ी बहुत सहायता देती ही हैं। नाभा