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साहित्यालाप


जाना जाता है कि हिन्दी की कविता नवीं शताब्दी में होने लगी थी। अतएव, जब तक और प्राचीन पुस्तकें उपलब्ध न हो तब तक बारहवीं शताब्दी में होनेवाले चन्द ही को प्राचीन हिन्दी के साहित्य का पिता कहना पड़ता है। चन्द का पृथ्वीराज रासौ ही, इस हिसाब से, प्राचीन हिन्दी का प्रथम ग्रन्थ है। परन्तु इस ग्रन्थ की छन्दो-रचना और आलङ्कारिक-वर्णन की प्रणाली इस बात का साक्ष्य अवश्य देती है कि चन्द के पहले हिन्दी के और कई कवि हो चुके हैं ।

यद्यपि पृथ्वीराज रासौ के अनेक स्थलों में सरस और चित्त को उत्तोजित करनेवाले वर्णन हैं, तथापि सब बातों का विचार करके यही कहना पड़ता है कि उसमें शब्दों का प्राचुर्य अधिक और अर्थ का प्राचुर्य्य कम है। प्राचीनता के विचार से रासौ हिन्दी बोलनेवालों के आदर का पात्र है। इतिहास के विचार से भी वह उपादेय है। इन बातों को सभी स्वीकार करेंगे। परन्तु काव्यांश में वह हीन है। इसका कारण एक तो यह है कि उसकी प्राचीन भाषा, जिसमें टवर्ग और द्वित्व से अधिक काम लिया गया है, कान को अच्छी नहीं लगती। दूसरा कारण यह भी है कि पढ़ने के साथ ही, सब कहीं,अर्थ का तत्काल बोध न होने से उसे पढ़ कर मन मुदित नहीं होता। वीर-रसात्मक काव्य होने के कारण, सम्भव है, चन्द ने जान बूझ कर टवर्ग अधिक प्रयोग किया हो और रचना में कठोरता उत्पन्न करने के लिए अक्षरों को द्वित्व भी शायद जान बूझ कर ही प्रदान किया हो।