किया जाय, उस समय लिखने के लिए कैथी लिपि का प्रस्ताव करना मानो मूल प्रस्ताव में बाधा डालना है। क्योंकि लिखने में कैथी अक्षरों के प्रयोग के प्रस्ताव का अर्थ यह होता है कि यदि कोई बँगाली अथवा गुजराती, देवनागरी लिखने पढ़ने का
अभ्यास करना चाहे तो उसे दो तरह की वर्णमालायें और बहुत से नये संयुक्त वर्ण सीखने पड़ें। इससे उसकी मेहनत दूनी हो जायगी और, सम्भव है, उन्हें सीखने का वह साहस ही न करे। अतएव यदि कैथी के पक्ष में प्रबल प्रमाण दिये भी जा सके तो भी इस प्रस्ताव के अनुकूल यह समय नहीं।
फिर, क्या सचमुच ही कैथी की वर्णमाला ऐसी है जो बिना क़लम उठाये कोई उसे लिखता चला जाय ? हमारी मन्द बुद्धि में तो वह ऐसी नहीं। उदाहरण के तौर पर देवनागरी और कैथी के कवर्ग वर्गों का मुक़ाबला (नक्शा देखकर ) कर लीजिए। देखिए, इन वर्गों में सिवा ऊपर की पाई के और कौन बड़ा फ़र्क है। तो क्या सिर्फ ऊपर पाई न लगाने ही से कालम बराबर दौड़ सकती है ? हमारी समझ में नहीं। ग्रीब्ज़ साहब अपनी बात को सप्रमाण सिद्ध करें तो शायद हम समझ जायं। आपकी एक बात और भी हमारी समझ में नहीं आई। आपने ष और ख का कैथी में एक ही रूप रक्खा है। यह क्यों?
यदि ऊपर पाई लगाने ही से किसी लेखक के समय का सर्वनाश होता हो तो वह काग़ज के एक सिरे से दूसरे सिरे तक एकदम ही एक लकीर खींच सकता है। पर क्या