गुजराती विद्वान् देवनागरी लिपि की विशुद्धता और एक-लिपि के लाभ अच्छी तरह समझ गये हैं। अतएव उनकी प्रवृत्ति इस तरफ़ खुद ही हो रही है। आशा है, यदि इसी प्रकार इस विषय में चल-विचलता जारी रही तो गुजरात में बहुत जल्द इस लिपि का प्रचार प्रारम्भ हो जायगा। पारसी लोगों की भी लिपि गुजराती है। पर उनका ध्यान, अभी तक, इस विषय की तरफ़ नहीं गया। उनके धर्मग्रन्थ पहलवी भाषा में हैं । अतएव उनको संस्कृत-ग्रन्थ पढ़ने और उसके द्वारा देवनागरी लिपि से पहचान करने का बहुत कम अवसर मिलता है। उनकी उदासीनता का यही कारण जान पड़ता है। कोई कोई तो कहते हैं कि पहले पहल पारसी लोगों ही ने गुजराती भाषा का प्रचार, छापे में, किया। क्योंकि सबसे पहले उन्होंने छापेरखाने खोले। सुनते हैं, पचास साठ वर्ष पहले गुजराती लिपि का प्रचार सिर्फ़ महाजनी बही खाते में होता था, और कहीं नहीं। परन्तु पारसियों की संख्या बहुत कम है। यदि वे इस सर्वोपयोगी और देशकल्याणजनक लिपि को न स्वीकार करें तो भी विशेष हानि नहीं। परन्तु ऐसा वे शायद ही करें। जब गुजराती लोग इस लिपि को काम में लाने लगेंगे तब पारसियों को लाना ही पड़ेगा।
नागरी लिपि को काम में लाने के लिए बङ्गालियों के अग्रगामी होने की बड़ी आवश्यकता है। बङ्गला लिपि भी देवनागरी-मूलक है। दोनों की वर्णमाला में अन्तर है; पर बहुत थोड़ा। पढ़े लिखे आदमी एक घण्टा रोज़ अभ्यास