थोड़ा थोड़ा प्रचार होना चाहिए। सब कहीं इस विषय की
चर्चा होनी चाहिए ; लेख निकलने चाहिए; पुस्तकें छपनी चाहिए ; लोगों का चित्त इस ओर अनेक उपायों से आकर्षित किया जाना चाहिए। इन बातों की बड़ी आवश्यकता है। बिना इसके सफलता असम्भव है। अपनी उन्नति के लिए हम को स्वयं कमर कसना चाहिए। यदि भाषा-सम्बन्धिनी उन्नति की अभिलाषा से हम बद्धपरिकर होंगे और कुछ करके दिखलावेंगे तो गवर्नमेंट भी,यथा-समय, हमारी अवश्य सहायता करेगी।
सब कहीं हिन्दी लिपि प्रचसित करने की अपेक्षा हिन्दी भाषा प्रचलित करने में विशेष कठिनता की सम्भावना है। इस समय प्रत्येक प्रान्त के निवासी अपनी अपनी भाषा को उन्नत करने के प्रयत्न में हैं। महाराष्ट्र, गुजराती, मदरासी और बंगाली, सभी अनेक प्रकार से, अपने अपने साहित्य को सुश्रीक करने में लगे हैं। अनुवाद करने, नवीन पुस्तकें लिखने, व्याख्यान देने, उत्तमोत्तम मासिक पुस्तकें और समाचारपत्र निकालने के लिए अनेक सभायें, अनेक समाज, और अनेक क्लब स्थापित हुए हैं। वे भला कब चाहेंगे कि उनकी भाषा त्याज्य समझी जाय, और हिन्दी, जो इस समय सबसे पीछे पड़ी है,देश-ब्यापक भाषा बनाई जाय। परन्तु, देश के हित के लिए उनको द्रुराग्रह छोड़ना पड़ेगा, ऐक्य उत्पन्न करने लिए अपने पराये की भावना भुलानी पड़ेगी, सहानुभूति का बीज अंकुरित करने के लिए थोड़ा सा कष्ट उठाना पड़ेगा। हमे अपने शासक अंगरेजों की ओर दृक्पात करना चाहिए। देश का काम