तैलङ्गी आदि लिपियां तो अनार्यों ही की लिपियां ठहरीं।
उनकी सदोषता की तो बात ही न कहिए। वे तो किसी प्रकार
ग्राह्य नहीं। रहीं बङ्गला और गुजराती लिपियां, सो ये देवनागरी लिपि ही की रूपान्तर हैं। उसीसे बिगड़ कर वे बनी हैं अतएव उनको प्रधानता नहीं मिल सकती। प्रधान लिपि वही है जिससे वे बनी हैं। इसी लिए देवनागरी लिपि ही में देश-ब्यापक भाषा का होना इष्ट है।
देवनागरी लिपि के समान, शुद्ध, सरल और मनोहर लिपि संसार में नहीं। विदेशीय और विजातीय विद्वानों तक ने उसकी प्रशंसा की है। विद्वान् बेडन साहब कहते हैं-
“संस्कृत लिपि की सरलता और शुद्धता सबको स्वीकार करनी पड़ेगी। संसार में संस्कृत के समान शुद्ध और स्पष्ट लिपि दूसरी नहीं।"
संस्कृत लिपि ही को देवनागरी लिपि कहते हैं। इस लिपि की पूर्णता और स्पष्टता के विषय में इतना ही कहना बस है कि इसकी रचना उच्चारण के अनुसार है। मुख से जैसा उच्चारण होता है उसीके अनुसार इसमें वर्ण रक्खे गये हैं। यही एक ऐसी लिपि है जिसमें दूसरी भाषाओं के कठिन से कठिन शब्द बड़ी शुद्धता से लिखे जा सकते हैं और वसे ही पढ़े भी जा सकते हैं। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान् अध्यापक माँनियर विलियम्स् लिखते हैं-
“सच तो यह है कि संस्कृत लिपि जितनी अच्छी है उतनी अच्छी और कोई लिपि नहीं। मेरा तो यह मत है कि