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देशव्यापक भाषा


जितने देश हम अच्छी दशा में देखते हैं उन सबको हम अपनी अपनी भाषा को प्रौढ़, सुगम और विशेष व्यापक करने में सदैव तत्पर देखते हैं। हमारे प्रभु अगरेजों को देखिए। यद्यपि उनकी भाषा में उच्चारण आदि सम्बन्धी कितने ही बड़े बड़े दोष हैं, तथापि उनका उस पर विलक्षण प्रेम है। वे उसकी अभिवृद्धि के लिए सदैव यत्नवान् रहते हैं। कोई विषय ऐसा नहीं जिसके सैकड़ों ग्रन्थ अङ्गरेजी में न हों। इन्हीं ग्रन्थों के द्वारा लोगों की सज्ञानता बढ़ती है, उनके विचार प्रौढ़ होते हैं, उनकी बुद्धि विकसित होती है। इन्हीं गुणों के योग से देश की प्रतिदिन अधिक अधिक उन्नति होती जाती है।

जब सज्ञानता की वृद्धि के लिए केवल भाषा ही एक मात्र मुख्य साधन है तब जिस लिपि में भाषा लिखी जाय, वह लिपि भी सर्वगुण-विशिष्ट, सरल और निर्दोष होनी चाहिए। गुणों का विवार करने में फ़ारसी लिपि का तो नाम ही न लेना चाहिए, क्योंकि उसकी बराबर सदोष और भ्रामक दूसरी लिपि शायद ही इस भूतल में हो। अगरेज़ी लिपि विदेशी है और अनेक दोषों से दूषित है। अंगरेज़ों ही के लड़के उस लिपि की पुस्तके बिना दो ढाई वर्ष परिश्रम किये अच्छी तरह नहीं पढ़ सकते। परन्तु देवनागरी की पुस्तके हमारे देश में छः सात वर्ष के छोटे छोटे बालक केवल पाँच छः महीने में पढ़ने लगते हैं। अतएव नागरी-लिपि के सामने अंगरेजी लिपि को किसी प्रकार श्रेष्टता नहीं मिल सकती। कनारी, तामील और