घोर निबिड़ में तू आयेगा यदि कोई यह बतलाता,
इस दीपक का मेरे द्वारा अन्त कभी का हो जाता।
+ + + + जो हो आओ रिक्तकरों से तेरा स्वागत करता हूँ,
जिसे हृदय में रक्खा था वह तव चरणों पर रखता हूं।
इस गूढार्थ-प्रेमी कवि की वह चीज़ अब पाठक ही ढूंढने की तकलीफ़ गंवारा करें जिसे वह अपने हृदय में, दीपक बुझने के समय तक छिपाये बैठा था । इस कविता का पहला खण्ड पढ़कर छन्दःशास्त्र को तो किसी नदी या समुद्र में डूब मरना चाहिए। यह "घोर निबिड़" क्या चीज़ है ? अन्धकार तो कहीं उस पङ्क्ति में है ही नहीं। कवि का हृदय ही घोर और निबिड़ हो तो हो सकता है। ऐसी ही कविता लिखकर हिन्दी के कुछ कवि अपनेको धन्य मान रहे हैं!
इसके मुकाबले में अब आप एक पुराने कवि की कविता का आस्वादन कीजिए-
सुदामा तन हेरे तो रङ्कट ते राव कियौ
विदुर तन हेरे तो राजा कियो चेरे तें।
कवरी नन हेरे तौ सुन्दर सुरूप दियो
द्रौपदी तन हेरे तौ चीर बढ़ यो टेरे ते॥
कहै छत्रसाल प्रहलाद की प्रतिज्ञा राखी
हर्नाकुस मार्यो नेक नजर के फेरे तें।