पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३५२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४७
आजकल के छायावादी कवि और कविता


कम वह श्रुति-सुखद तो होनी चाहिए । यदि उसमें कुछ चमत्कार हो तो और भी अच्छा । चमत्कार को भी अच्छी कविता का एक अङ्ग समझना चाहिए । क्षेमेन्द्र ने लिखा है-

एकेन केनचिदनधमणिप्रभेण

काव्यं चमत्कृतिपदेन विना सुवर्णम् ।

निर्दोलेपमपि रोहति कस्य चित्त

लावण्यहीनमपि यौवनमङ्गनानाम् ॥

काव्य चाहे सब प्रकार निर्दोष ही क्यों न हो और चाहे वह सुवर्णाभरण से अलङ्कृत ही क्यों न हो, यदि उसमें बहुमूल्य मणि के सदृश कोई चमत्कार उत्पन्न करनेवाला पद नहीं तो-कामिनियों के लावण्य-हीन यौवन के सदृश-भला वह किसे अच्छा लगेगा?

द्विज का अर्थ है-दांत, पक्षी और ब्राह्मणादि वर्णत्रय । कविता में उड़ने और गाने आदि का उल्लेख है । इससे सूचित‌है कि कविता के पहले दो खण्डों में कवि किसी पक्षी की बात कह रहा है । पर अन्तिम खण्ड में उसने जो कुछ कहा है उससे उसके मन की बात ध्यान में नहीं आती । यदि ऐसी नीरस और प्रभावनीय सतरें भी कविता कही जा सकेंगी तो नीचे की व्यर्थ बक भी कविता हो क्यों न समझी जाय-

सिंघलदीप की पदमिनी राब भुजावन जायँ

कोठे पर ते गिर पड़ी का खैहो कोह का खेत

अब आप एक सत्कवि की सीधी-सादी कविता सुनिए ।

कवि भगवान् मुरलीमनोहर से विनय करता है-