पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३५१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४६
साहित्यालाप


यह तो करता है उत्पात !

अति अनन्त नभ की नीरवता यह शब्दित कर हरता है, विमल-वायु का कोमल मानस उड़उड़ कम्पित करता है। मेरे सुन्दर धनुष-बाण में समुद्र बैठते डरता है, इसे बुलाने पर भी तो यह कभी न निकट विचरता है।

इसे नहीं यह अब तक ज्ञात-

जब तुम मुझको बैठाती हो कंटक दल के आसन में, उसे ग्रहण करती हूं, तब मैं कितनी प्रमुदित हो मन में । शुल फूल से हो जाते हैं स्वकर्तव्य के पालन में, क्या न बनी थीं पुरी अयोध्या पञ्चबटी के भी वन में।

पाठक कृपापूर्वक बतलावे कि इस गोरखधन्धे में ये क्या समझे । डरता, विचरता, हरता और हो जावेगा, भर जायेगा, गा सकेगा आदि। पहले दो खण्डों की क्रियाओं का कर्ता तो 'द्विज दल' जान पड़ता। तीसरे स्वगड में 'तुम' किन के लिए‌ आया है और 'ग्रहण करती है' यह स्त्रीलिङ्ग किया किसकी है ? फिर 'धनुष में' (धनुष के भीतर ) कोई कैसे घुम कर बैठ सकता है। हां, उसके ऊपर पक्षी अवश्य बैठ सकते हैं। और, इन बातों को आप जाने दीजिए, क्योंकि वैसे तो इसमें अनेक विचित्रतायें हैं ।अच्छा, कवि का भाव क्या है यह बताइए और इन सतरों को पढ़ कर आप पर कुछ असर भी हुआ या नहीं, यह कहिए। क्या यह शब्दाडम्बर ही मात्र नहीं ? क्या इसके पाठ से आपका हृदय कुछ भी चमत्कृत हुआ ? किसीकविता में यदि कुछ हृदयहारी भाव न हो कम से