लिखी। आशा है, वे, इस मौनावलम्बन को छोड़ कर, वङ्गदेश में भी, देश में एक भाषा होने के लाभालाभ का विचार लोगों के मन में जागृत करेंगे।
बरोदा से “ श्रीसयाजी-विजय " नामक एक समाचारपत्र
निकलता है। उसकी भाषा मराठी है। वह मराठी के अच्छे
समाचारपत्रों में से है। कुछ काल हुआ उसमें “हिन्दुस्थान की राष्ट्र-भाषा " नामक एक लम्बा लेख कई अंकों में निकला था। उसे पण्डित भास्कर विष्णु फड़के ने जयपुर से लिखा है। यह लेख पढ़ने योग्य है ; विचार करने योग्य है। वामनराव पेठे के समान भास्कर राव फड़के ने भी इस देश में एक भाषा होने की बड़ी आवश्यकता दिखाई है। देश-व्यापी भाषा होने के योग्य उन्होंने अपनी मातृभाषा मराठी को नहीं बतलाया ; और न गुजराती ही को बतलाया। वङ्गभाषा को भी उन्होंने इस योग्य नहीं समझा ! स्मरण रखिए, ये तीनों भाषायें इस देश में, इस समय, बहुत अच्छी अवस्था में हैं; उन्नत है; प्रतिदिन अधिक अधिक उन्नत होती जाती हैं , और यथाक्रम एक दूसरेसे अधिक ऊर्जित दशा में हैं। यद्यपि ये भाषायें इतनी उन्नत हैं, तथापि पूर्वोक्त पण्डितों ने इनको देश भर की भाषा होनेकी योग्यता से खाली पाया है ! देशव्यापक भाषा होने की योग्यता उन्होंने पाई किसमें है ? हिन्दी में! वही हिन्दी, जिसे इन प्रान्तों के प्रवीण पण्डित और विद्वान्
बाबू लोग निरादर की दृष्टि से देखते हैं; जिसमें छपे हुए समाचारपत्र पढ़ना वे पातक समझते हैं; जिसमें अपना