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साहित्यालाप


वालों के तान दरजे होते है-अल्पप्रयत्नमाध्य, कुन्द्रमाध्य और असाध्य । इनमें से पहले दोनों के लिए भी बहुत कुछ अध्ययन,श्रवण, विचार और अभ्यास को ज़रूरत होती है। यह नहीं कि तेरह-ग्यारह भावाओं के दोहे का लक्षण जान लेते हो काता और ले दौड़े। अन्तिम नामरे दरजे के मनुष्यों के लिए क्षमेन्द्र ने लिखा है-

यस्तु प्रकृत्याश्मसमान एवं

कप्टेन वा व्याकरणेन नष्ठ: ।

तण दग्धोऽनिन्न मिना वा.

प्यविद्ध कर्णः सुकविप्रबन् : ॥२२॥

न तस्य वक्त त्वसमुद्भवः म्या-

च्छिता विशेषैरपि मुप्रयुक: ।

न गर्दा गार्यात शिक्षिताऽपि

सन्दर्शितं पश्यति नार्क मन्धः ॥२३॥

जिसका हृदय स्वभाव ही से पत्थर के समान है, जो जन्म- रोगी है, व्याकरण “धोखते" "पोखते" जिसकी बुद्धि जड़ है। गई है, घट-पट और अग्नि-धूम आदि से सम्बन्ध रखनेवाली फक्किकाएं रटते रटते जिसकी मानसिक सरसता दग्ध सी हो गई है, महाकवियों को सुन्दर कविताओं का श्रवण भी जिसके कानों को अच्छा नहीं लगता उसे आप चाहे जितनी शिक्षा दें और चाहे जितना अभ्यास करावे वह कभी कवि नहीं हो सकता। सिखाने से भी क्या गधा भैरवी अलाप