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आज कल के छायावादी कवि और कविता


ऐसे कवि तो घर घर में भरे पड़े हैं जिनकी वचन-चातुरी अपने ही आंगन में मनोहारिणो बातें करनेवाली कुलकन्या के समान, गुणों के प्रशंसक स्वजनों ही से आदर पाती हैं । परन्तु जिनकी सरस वाणी ( दूर दूर तक के ) रसग्राही कविता-प्रेमियों का चित्त, कलाकुशल वारवनिता के सदृश, चुरा लेने में समर्थ होती है वे कबीश् र मुश्किल से कहीं पाये जाते हैं।

पुरान में

एक बात और भी है । यदि ये लोग अपने ही लिए कविता करते हैं तो अपनी कविताओं का प्रकाशन क्यों करते हैं ?प्रकाशन भी कैसा ? मनोहर टाइप में, बहुमूल्य काग़ज़ पर ।अनोखे अनोखे चित्रों से सुसजित । टेढ़ी-मेढ़ी और ऊँची-नीची पङक्तियों में, रङ्ग-बिरङ्ग बलवूटों से अलङ्कृत । यह इतना ठाठ-बाट-यह इतना आडम्बर-दूसरों ही को रिझाने के लिए हो सकता है, अपनी आत्मा की तृप्ति के लिए नहीं। परन्तु सत्कवि के लिये इस आयोजन की आवश्यकता नहीं। जिन कवियों को नामशेष हुए हजारों वर्ष बीत चुके उनको यह कुछ भी नहीं करना पड़ा । करना भी चाहते तो वे न कर सकते। क्योंकि उस समय ये साधन ही सुलभ न थे । किसी ने अपना काव्य ताड़पत्र पर लिखा, किसीने भोजपत्र पर । किसीने भद्दे और खुरदरे काग़ज़ पर । पर जनता ने प्रकाशन के आडम्बरों से रहित इन सत्कवियों के काव्यों को यहाँ तक अपनाया कि समय उनको नष्ट न कर सका, धर्मान्ध आततायियों से उनका कुछ न बिगड़ सका, जलाप्लावन और भूकम्प