और कर्तृवाच्य तथा सकर्मक और अकम्र्मक क्रियात्रा में भेद रखना भाषा की रफ्तार में रुकावट पदा करता है । इसलिए इस भेद-भाव को दूर कर देना चाहिए । भाषा का उन्नत करने का यह तरीका बहुत ही बढ़िया है। इसीसे हम लोग भी अब, कुछ समय से, इस तरह के प्रयोगों का अनुकरण हिन्दी में धड़ाधड़ करने लगे हैं । इसका फल भी बहुत हो मीठा और बहुत ही ज़ायकेदार हुआ है। इसी तरह के अनुकृत प्रयोगों के कृगकटाक्ष से अब हमारे यहां सुप्रमान और उष:काल के बदले "नूर का तड़का" होने लगा है और "सङ्गठन का शोराजा" भी बिखरने लगा है।
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हिन्दी के पुराने लेखक एक बड़ी भारी भूल कर रहे है । वे पहले भी समझते थे और अब भा समझते हैं कि "आज" कहने से दिन का बोध होता है । अतएव दिन के अर्थ में वे उसका प्रयोग बराबर करते चले जा रहे हैं । "आज-कल" का मुहावरा सदा ही उनकी ज़बान पर रहता है। वे "आज" के भी भीतर "दिन" का अन्तभुत समझते हैं और "कल" के भी भीतर । मगर उनकी यह भूल अब कहीं जाकर पकड़ी गई है । इसे पकड़ा है बी० ए०-एम० ए० पास, वकालत-पास, समालोचकों के सरताज, हिन्दी के अभिनव नामी लेखकों ने । उनका सिद्धान्त है कि "आज" और "कल" से घड़ो, घण्टे, पक्ष, मास, वर्ष, युग और कल्प आदि का अर्थ चाहे भले ही निकले; परन्नु दिन का अर्थ नहीं निकलता । उसका अर्थ