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वक्तव्य

क्या उसका विकास या उन्नति बन्द हो गई ? यही हाल अरबी फ़ारसी और उर्दू का भी है। यह तो कोई व्याकरण की बात नहीं ; केवल सुभीते या परिपाटी की बात है।

संस्कृत में भ्याम्, भ्यः (भ्यस् ), भिः (भिस् ) आदि विभक्तियां लगने पर, शब्दों में कई प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते हैं, उनका रूप कुछ का कुछ हो जाता है ; विभक्तियां उनका अंश हो जाती हैं ; वे उनसे पृथक् रही नहीं सकती। इस कारण संलग्नता की बात संस्कृत के लिए तो ठीक ही है; पर हिन्दी को भी उसी नियम से जकड़ने की क्या आवश्यकता ? संस्कृत के कोष आप ढूढ़ डालिए । भ्याम्, भ्यः आदि विभक्तियां उनमें, पृथक् शब्दों के रूप में, कहीं न मिलेगी। वे पृथक् शब्द नहीं मानी गई। पर हिन्दी का कोई भी प्रतिष्ठित कोष-पादरी वेट तक का-आप उठा लीजिए। उसमें को, के, से, में आदि का निर्देश आपको, स्वतन्त्र शब्दों की तरह किया गया, मिलेगा। अतएव यदि कुछ लेखक, हिन्दी में, विभक्तियों को अलग लिखे तो क्या कोई बहुत बड़ो अभावनीय या अस्वाभाविक बात हो जाय ? क्या ऐसा करने से हिन्दी की उन्नति में बाधा उपस्थित हो सकती है? यह व्याकरण का विषय नहीं, यह तो रूढ़ि का परिपाटी का, लिखने के ढंँग का---विषय है। शब्द अलग अलग होने से पढ़ने में सुभीता होता है; भ्रम की सम्भावना कम रह जाती है। जिनको यह ढंँग पसन्द न हो वे विभक्तियों ही को नहीं, शब्दों को भी परस्पर मिलाकर लिख सकते