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वक्तव्य


जाता हो, हमें निःसङ्कोच उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। हमारी सभ्यता पर सिक्खों, पारसियों, मुसलमानों, अंगरेजों, चीनियों और जापानियों तक की सभ्यता का प्रभाव पड़ा है। जैनों और बौद्धों की सभ्यता का तो कुछ कहना ही नहीं । अतएव इन जातियों और धर्मानुयायियों के साहित्यों से भी उपादेय अंश ग्रहण करके हमें अपने साहित्य की पूर्ति करनी चाहिए।

वैदिक और पौराणिक काल में निर्मित ग्रन्थों का जो अंश हमारे यहां बच रहा है वही इतना अधिक है कि अनेक लेखक सतत श्रम करने पर भी उसे, थोड़े समय में, हिन्दी का रूप नहीं दे सकते। अकेले जैनियों ही के ग्रन्थ-भाण्डारों में सैकड़ों नहीं, हज़ारों ग्रन्थ अब भी ऐसे विद्यमान हैं जिन का नाम तक हम लोग नहीं जानते। यह सारा साहित्य हमारे ही पूर्वजों की-हमारेही देशवासियों की--कृपा से अस्तित्व में आया है। अतएव वह भी हमारी सभ्यता का निदर्शक है। उसे छोड़ देने से हमारी सभ्यता और हमारी जातीयता के बोधक साधन पूर्णता को नहीं पहुंच सकते।

पुराणों को कुछ लोगों ने बदनाम कर रक्खा है। वे उन्हें गपोड़े समझते हैं। यही सही। पर क्या गपोड़े होने ही से वे त्याज्य हो गये ? क्या गपोड़े साहित्य का अंश नहीं ? क्या पुराण अपने समय की भारतीय सभ्यता के सूचक नहीं ? क्या बड़े होने पर हम अपनी दादी या नानी की कही हुई कहानियां याद करके आनन्दमग्न, और कोई कोई प्रेमविह्वल