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कवि सम्मेलन

अमुक ही अमुक विषय या रस की कवितायें पढ़ी जायँगी। फिर रुचि-वैचित्र्य का भी तो ध्यान रखना चाहिए । सबकी रुचि एक सी नहीं होती । देवदत्त जिसे कुरुचिपूर्ण समझेगा,भवदत्त शायद उसे वैसा न समझे। एक बात और भी है। कविताओं में अनेक रसों की योजना हो सकती है। महिलाओं से क्या कह दिया गया था कि शृङ्गाररस की कवितायें न पढ़ी जायँगी ? स्त्रियाँ स्वभाव ही से लज्जालु होती हैं, पुरुषों के सामने और भी अधिक । ऐसी दशा में शृङ्गार की उक्ति सुनकर यदि उन्हें सङ्गोच मालूम हो तो आश्चर्य नहीं। अतएव कवि-सम्मेलनों में उन्हें जाना ही न चाहिए । कुछ भी हो, कवियों का मुंँह नहीं बन्द किया जा सकता। "कवयः किन जल्पन्ति"। जिसकी खुशी हो उनकी कविता सुने; जिसकी न हो, न सुने।

शृङ्गाररस होने ही से कविता अश्लील नहीं हो जाती। यदि ऐसा होता तो कालिदास की क्या गति होती ? उनके तो प्राय: सभी काव्य और सभी नाटक पढ़ने योग्य न समझे जाते । उनमें तो बीच बीच, वीर, शान्त और करुणरस के प्रवाह में भी, शृङ्गाररस के भंँवर उठा करते हैं, यथा--

ततः प्रियोपात्तरसेऽधरोष्ठे

निवेश्य दध्मौ जलजं कुमारः।

फिर भला श्रीकृष्ण की लोला-भूमि, वृन्दावन, मै शृङ्गार-रस की कविता के श्रवण से यदि किसीको उद्घग होगा तो श्रीमदभागवत् को कथा किसका आश्रय लेगी? वह तो मध्य