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उर्दू और आज़ाद


बड़ा कमाल यह है कि कभी सिफ़त बाद सिफ़त कभी इस्तेआरा दर इस्तेआरा से उसे और तङ्ग व तारीक किया जिससे हुआ तो यह हुआ कि बहुत ग़ौर के बाद फकत एक वहमी नज़ाकत और फ़र्जी लताफत पैदा हो गई कि जिसे मुहालात का (मुश्किलों का ) मजमूआ कहना चाहिए । लेकिन अफसोस यह है कि बजाय इस के कि कलाम उन का ख़ास व आम के दिलों पर तासीर करे वह मुस्तैद लोगों को तबा-आज़माई के लिए एक दकीक मुअम्मा और अवाम के लिये एक अजीब गोरखन्धन्दा तैयार हो गया । और जवाब उन का यह है कि कोई समझे तो समझे, जो न समझे वह अपनी जेहालत के हवाले ।”

सुना आप ने उर्दू के इन्शापरदाज़ों की करतूत ! अब कुछ और सुनिए। दो एक बातों में फ़ारसी ढंग की नक़ल करके उर्दू, ब्रजभाषा से बढ़ गई-इस पर ख़ुशी मनाते हुए "आज़ाद साहब" "आबे-हयात" के पृष्ट ५६ और ५७ में फरमाते हैं----

"इस फख के साथ यह अफसोस फिर भो दिल से नहीं भूलता कि उन्होंने (अपने बुजुर्गों ने ) एक कुदरती फूल को जो अपनी खुश्बू से महकता और रङ्ग से लहकता था मुफ़्त हाथ से फेंक दिया। वह क्या है ? कलाम का असर और इज़हार अस्लियत । हमारे नाज़ुक खयाल और बारी कबीन लोग इस्तेआरों और तशबीहों की रंगीनी और मुनासिबत लफ़ज़ी के झौंका व शौका में ख़याल से ख़याल पैदा करने लगे और असली मतलब के अदा करने में बे-परवा होगये । अजाम