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साहित्यालाप

उर्दू की अनस्थिरता के विषय में, मौलवी साहब, १८९९ ईस्वी की छपा हुई, अपनी पुस्तक, "आवे-हयात" के तेइसर पृष्ठ पर लिखते हैं।

"उर्दू इस कदर जल्द जल्द रंग बदल रही है कि एक मुसन्निफ़ अगर खुद अपनी एक सन की तसनीफ़ को दूसरे सन की तसनीफ़ से मुकाबला करे तो जुबान में फ़रक पायेगा।

“बावजूद इसके अब तक भी इस काबिल नहीं कि हर किस्म के मज़मून ख़ातिरख्वाह अदा कर सके या हर इल्म की किताब को बेतकल्लुफ़ तरजमा कर दे।"

जब उर्दू की यह दशा है तब हिन्दी के लिए वह क्यों आदर्श मानी जाय ? हिन्दी को संस्कृत के व्याकरण का यथा-सम्भव अनुकरण करना चाहिए, उर्दू, फारसी के व्याकरण का नहीं। अब पाठक विचार करें कि मौलवी साहब की उर्दू-इवारत का व्याकरण संस्कृत व्याकरण के नियमों के कहां तक अनुकूल है ?

कुछ लोगों का खयाल है कि अरबी, तुर्की और फ़ारसी का कोई शब्द यदि हिन्दी में लिखा जाय तो उसका उच्चारण ठीक वैसा ही होना चाहिए जैसा कि उन भाषाओं में होता है। यह बात भाषा-विज्ञान के नियमों के सर्वथा खिलाफ़ है यदि ऐसा हो सकता तो आज संस्कृत और प्राकृत के हज़ारों शब्दों की मिट्टी उर्दू में जो खराब हो रही है वह न होती। इस उर्दू ने अरबी, फ़ारसी और तुर्की के भी अनन्त शब्दों को तोड़-मरोड़ कर अपना सा कर लिया है । ऐसे शब्दों के कितने ही उदा-