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साहित्यलाप

अख़बार निकलते थे उसमें अब ८६ निकल रहे हैं—अर्थात् उनकी संख्या बढ़ कर कुछ कम चौगुनी हो गई है। परन्तु उर्दू के अख़बारों की संख्या इतने समय में दृनी भी नहीं हुई। २० वर्ष पहले हिन्दी के अख़बारों और सामयिक पुस्तकों की कापियों की संख्या सिर्फ पाठ हज़ार थी। वह अब सतहत्तर हज़ार से भी अधिक हो गई है। यह बढ़ती १० गुने से कुछ ही कम है। परन्तु इतने ही समय में उर्दू-अख़बारों और सामयिक पुस्तकों की कापियों की संख्या सोलह हज़ार से सिर्फ छिहत्तर हज़ार हुई है, अर्थात् वह ५ गुना भी नहीं बढ़ी। सो ब्लन्ट साहब के अनुसार हिन्दी क्लिष्ट होने पर भी दस गुना उन्नति कर गई और उर्दू प्रामफ़हम होने पर भा, सिर्फ ५ गुना! इससे तो यह कदापि नहीं सिद्ध होता कि लोग उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि को अधिक और हिन्दी-भाषा और नागरी-लिपि को कम पसन्द करते हैं।

अब पुस्तकों का भी लेखा देखिए:—

साल उर्दू हिन्दी
१९०१ ४८८ ४२६
१९१० ४३५ ८०६

१९०१ में उर्दू की सिर्फ ४८८ पुस्तकें निकली थीं। इस संख्या में वृद्धि होना तो दूर रहा, १९१० में घट कर