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साहित्यालाप


फ़ौजी अफसरों को सिर्फ हथियार और कवायद इत्यादि के विषय में अपने सिपाहियों और नोकरों से बातचीत करनी पड़ती है। और महकमेवालों को विशेष करके अपने ही अपने महकम या खेल तमाशे के विषय में कहना सुनना पड़ता है। अपने मतलब को किसी तरह ज़ाहिर कर देना ही वे अपना परम पुरुषार्थ समझते हैं ।

ये लोग इस बात की तिनके के बराबर भी परवा नहीं करते कि ये किस तरह की भाषा बोलते हैं। सुनकर तअज्जुब होगा, पर मैं सच कहता हूं, मैंने बड़े बड़े साहय है.गों को राजा महाराजों तक से ऐसी भाषा बोलते सुना है जिसे सिवा उनके, आदमी के आकार का और कोई जीव, न समझ सकता । पर ये लोग इस कारण न तो रत्ती भर घबराते हैं और न शरमिन्दा ही होते हैं। हमें चाहिए कि या तो हम उनकी भाषा सीखें या अपनी भाषा उन्हें लिखावें । इस देशवालों को खुश करने और अपना पक्षपाती बनाने के लिए इस बात की बड़ी ज़रूरत है । इनका और हमारा परस्पर में मेल चाहे भले हो हो जाय, पर जो बातें इनमें बुरी हैं वे उस तरह की भाषा में बातचीत करने से हरगिज़ नहीं सुधर सकतीं, जिस तरह की भाषा आजकल योरपवाले यहां बोलते हैं। जब तक हम लोग परस्पर एक दूसरेको भाषा न बोल सकेंगे तब तक न्यायाधीश के आसन पर अथवा कौंसिल के दीवान खाने के भीतर, अथवा वारिस्टरों और वकीलों की कुर्सी पर हम कभी एक दूसरेकी बराबरी न कर सकेंगे ।