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कौंसिल में हिन्दी


सर्वथा प्रतिकूल है। मुसलमानों को पहले अलग “वोट" देने और अपने अलग मेम्बर कौंसिलों में भेजने का अधिकार न प्राप्त था। अब क्यों प्राप्त है ? पहले उनके मकतबों के लिए अलग इन्सपेक्टर्स न थे । अब क्यों हैं ? नये म्युनीसिपैलिटी ऐक्ट में उनके लिए जो सुभीते किये गये हैं वे क्या पहले भी थे ? यह कहां का न्याय है कि जिस बात से उन्हें लाभ पहुँचे उसके सम्बन्ध में तो वे हिन्दुओं से झगड़ा हो जाने की ज़रा भी परवा न करें, पर जिसके सम्बन्ध में उन्हें व्यर्थ ही अपनी हानि हो जाने का भय हा उसका उत्थान होते ही वे उसे दबाने की चेष्टा करें ! जिस काम से झगड़े की सम्भावना हो उस पर तो दोनों पक्षों को खुले दिल से और भी अधिक विचार करना चाहिए। बिना विचार किये झगड़े की जड़ ही न जायगी। उसका भय सदा बना ही रहेगा । हिन्दी का प्रचार किसीके दबाने से दब नहीं सकता। अतएव उसका सामना करना ही चाहिए और आपस में फैसला कर ही लेना चाहिए । हज़ारों हिन्दू उर्दू लिखते पढ़ते हैं। पर मुसलमान हिन्दी के नाम ही से कोसों दूर भागते हैं। यह कैसी उदारता है ! ऐसे वर्ताव से झगड़ा उत्पन्न होता और बढ़ता है, दबता या घटता नहीं । न हमें उर्दू से नफ़रत है और न हम उसे सीखना ही छोड़ना चाहते हैं; पर अपने सुभीते के लिए हिन्दी का प्रचार अवश्य चाहते हैं।

(ख) यह हम मान लेते हैं कि मुसलमानों ही की बदोलत उर्दू अस्तित्व में आई है। पर उसके उन्नायक एकमात्र