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साहित्यालाप


वे संयुक्तप्रांत के हिन्दुओं की भी भाषा बताते हैं। इतनी ग़लतबयानी करके भी वे शान्ति-पूर्वक बहस नहीं करते। बहुत ही कड़वी और उत्तेजक बातें तक कह डालते हैं। विपरीत इसके हिन्दू, वाद-विवाद के समय, शान्ति और संयम को हाथ से नहीं जाने देते; जो कुछ कहते हैं सप्रमाण और तर्कसङ्गत कहते हैं । पर उनकी तर्क-सिद्ध बातों ही को मुसलमान-मेम्बर एक प्रकार का दोष समझते हैं । उन्होंने कौंसिल में यहां तक कह दिया कि प्रस्तुत प्रस्ताव में कुतर्क के सिवा और कुछ सार नहीं । उसके मंज़र हो जाने से कार्य-सिद्धि कुछ भी न होगी। जैसे असङ्गत, अनावश्यक तर्क-हीन बातें ही कार्य की सिद्धि और आवश्यकता की सूचक हो!

(क) प्रस्ताव में हिन्दी-उर्दू के झगड़े की कहीं बृतक नहीं, पर यदि प्रस्तावकर्ता ने हिन्दी को उर्दू का समकक्ष बना देने ही के इरादे से प्रस्ताव किया हो, तो भी उनका यह काम अनुचित नहीं कहा जा सकता। उर्दू को मुसलमान अपनी भाषा समझते हैं । उर्दू के प्रचार के लिए जिस तरह मुसलमान दत्तचित्त हैं उसी तरह हिन्दी के प्रचार के लिए यदि हिन्दू दत्तचित्त हो तो इसमें अस्वाभाविकता या अनौचित्य कैसा! उर्दू का अब तक अकण्टक राज्य रहा है। कोई कारण नहीं कि प्रजा के सुभीते के लिए उस राज्य के कुछ अंश की अधिकारिणी हिन्दी भी न समझी जाय। जो बात जैसी है उसे वैसी ही रहने देना संसार की गति के