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कौंसिल में हिन्दी


उद्गार निकाले और जिस प्रकार एक ज़री सी बात का बतड़्गड़ बनाया, उससे सूचित हुआ कि या तो इस दल के माननीय मेम्बरों को अपने विषय की कुछ ख़बर ही नहीं,या जिद में आकर कुछ का कुछ कहने में उन्हें सङ्कोच ही नहीं। उनके प्रतिवाद-वाक्यों से अनभिज्ञता कम, पर हठ और दुराग्रह अधिक प्रकट हुआ। प्रजा के सुशिक्षित प्रतिनिधियों में इस दोष का होना बड़े ही परिताप की बात है।

प्रस्ताव से हिन्दी उर्दू के झगड़े की ज़री भी गन्ध नहीं आती। हिन्दी और उर्दू ये दोनों भाषायें इस प्रान्त में प्रचलित हैं । सब-जजों और मुन्सिफ़ों के लिए उर्दू-भाषा और और फ़ारसी-लिपि जानने की कैद है। फिर कोई कारण नहीं कि वे हिन्दी-भाषा और देवनागरी-लिपि क्यों न जाने ? प्रजा का अधिकांश यही पिछली भाषा और पिछली लिपि जानता है । अतएव उनके जानने की तो और भी ज़रूरत है । फिर,प्रस्ताव में इसका कहीं उल्लेख नहीं कि पूर्वोक्त अफ़सर इस भाषा और इस लिपि में भी अपने फैसले और गवाहों के बयान लिखा करें। जिस लिपि या जिस भाषा में वे लिखते आये हों,लिखते रहें। हिन्दी-नागरी से लिर्फ जानकारी प्राप्त कर लें। बस, और कुछ नहीं। सो इस इतनी सीधी सादी बात पर बड़े बड़े तूमार बांधे गये और निराधार कल्पनाये की गई। उर्दू-भाषा और फ़ारसी-लिपि को पदच्युत करने के लिए जरी भी कोशिश नहीं की गई । कोशिश सिर्फ इस बात की की गई कि सब-जज और मुन्सिफ थोड़ी सी हिन्दी भी