सब-जज नियत होते हैं । अर्थात् नागरी और फ़ारसी, दोनों
लिपियों, से इनका परिचय पहले ही से रहता है।
एक मुन्सिफ़ साहब ने गवाहों के बयान देवनागरी लिपि में लिख डाले । इसपर होहल्ला मचा। अख़बारों में लेख निकले। कहा गया कि नागरी-लिपि में बयान क्यों लिखे गये। फ़ारसी ही में लिखना था। इस पर माननीय चिन्तामणि ने प्रान्तिक कौंसिल में कुछ पूछ-पाछ की। गवर्नमेंट ने उत्तर में कहा वर्तमान पद्धति में फेरफार न किया जायगा । अर्थात् इज़हार आदि आजकल सब फ़ारसी लिपि में लिखे जाते हैं, वे वैसे ही लिखे जायँगे । इससे माननीय महाशय की परितुष्टि न हुई। इस कारण,२६ फरवरी १९१७ की बैठक में, उन्होंने प्रान्तीय कौंसिल में एक प्रस्ताव उपस्थित किया।
उसका आशय यह था---
जो लोग मुन्सिफ़ और सब-जज ( सदराला ) नियत हों उनके लिए केवल फ़ारसी-लिपि में हिन्दुस्तानी (उर्दू) भाषा लिख-पढ़ सकना ही लाज़िम न समझा जाय, देवनागरी-लिपि में हिन्दी-भाषा लिख-पढ़ सकना भी लाज़िमी समझा जाय।
उन्होंने इस प्रस्ताव का उत्थापन बड़ी योग्यता से किया। अच्छी युक्तियों से काम लिया। तर्क-सङ्गत भाषण किया। अपने कथन की पुष्टि में प्रमाण भी दिये। बलाबल का ख़ूब विचार किया। कहा---गवर्नमेंट ही के कर्मचारियों के हाथ से लिखी गई मनुष्य-गणना की रिपोर्टों से मेरे प्रस्ताव के "पास" किये जाने की आवश्यकतासिद्ध है । इल प्रान्त में हिन्दी जानने-