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साहित्यालाप


जिन्होंने अँगरेजी की उच्च शिक्षा पाई है--जो संस्कृत के उत्कृष्ट विद्वान है---वे हिन्दी का अनादर करते हैं । यदि यह इस लिए कि हिन्दी भिखारिनी है तो इसके एकमात्र उत्तरदाता हमीं हैं। इसका पाप एकमात्र हमारे ही लिर है। जो मनुष्य अपनी माता का अनादर करता है, जो मनुष्य रेशमी परिच्छेद पहन कर चीथड़ों में लिपटी हुई अपनी माता की तरफ़ घृणाव्यजक कटाक्ष करता है, जो मनुष्य समर्थ हो कर भी अपनी माता का उद्धार आपदाओं से नहीं करता उसे यदि ओर कुछ नहीं तो क्या लज्जा भी न आनी चाहिर ? माता के बिना मनुष्य का काम केवल वाल्यावस्था में नहीं चल सकता; परन्तु मातृ-भाषा के बिना तो किसी भी अवस्था में मनुष्य का काम नहीं चल सकता । इसीसे माता ओर मातृभाषा की इतनी महिमा है । अतएव हमारे उच्च शिक्षा पाये हुए भाइयों को चाहिए कि वे हिन्दी लिखने और पढ़ने का अभ्यास करें; हिन्दी के साहित्य को उन्नत करने की चेष्टा करें; हिन्दी को नफ़रत की निगाह से देखना बन्द कर दें । यदि वे इस तरफ़ ध्यान दें तो न किसी और से कुछ कहने की आवश्यकता है, न किसी और से सहायता माँगने की आवश्यकता है, न किसी और से उत्साह पाने की आवश्यकता है। ओर, कोई कारण नहीं कि वे अपनी भाषा की उन्नति का यत्न न करें। जिस अँगरेज़ी शिक्षा का उन्हें इतना गर्व है उसके आचार्य बड़े बड़े विद्वान् अँगरेज़ क्या अपनी मातृभाषा की सेवा नहीं करते ? बड़े बड़े बंगाली, मदरासी, गुजराती, महाराष्ट्र और