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साहित्यालाप


नहीं । मतलब यह कि उस समय तक भी लिखने की कला का प्रचार या प्रादुर्भाव इस देश में न हुआ था। परन्तु साहव की दृष्टि एक श्लोक पर नहीं गई । वह मनुस्मृति के आठवे अध्याय का १६८ वां श्लोक है। उसमें "लेखित" शब्द स्पष्ट रूप से आया है । देखिए-

"बलादत्तं बलाद्भक्त बलाद्यच्चापि लेखितम् ।

सर्वान बलकृतानर्थानकृतान्मनुरब्रवीत् ॥”

अर्थात् बलपूर्वक दी हुई, बलपूर्वक उपभाग की हुई और बलपूर्वक लिखाई हुई चीज़ों को मनु न करने के बराबर मानते हैं । इस श्लोक में 'लेखित' पद के आ जाने से मनुस्मृति के ज़माने में लिपिकला के अच्छी तरह प्रचार का बलवान् प्रमाण विद्यमान है।

महाभारत में लिखा है।

"वेदविक्रयिणश्चैव वेदानां चैव लेखकाः।

वेदानां दूषकाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥"

जो लोग वेदों की बिक्री करते हैं, अर्थात् कुछ लेकर उन्हें पढ़ाते हैं, वेदों को लिखते हैं, वेदों की निन्दा करते हैं, वे सब नरकगामी होते हैं। मोक्षमूलर साहब कहते हैं कि इस श्लोक में “लेखकाः' पद से लेखकों का अर्थ तो ज़रूर निकलता है; पर महाभारत के समय में वेद लिखे नहीं जाते थे। क्यों ? उनके लिखने की मनाई थी ? साहब की यह उक्ति एकबारही युक्तिहीन है। यदि उस समय किसीने वेदों को न लिखा होता तो उनके लिखने की मनाई क्यों होतो? जिस चीज़ का