अस्तित्व के प्रतिकूल कोई प्रमाण न दिया जाय तब तक अनुमानमात्र से उसके होने में सन्देह करना अन्याय है।
मनुस्मृति, महाभारत और अष्टाध्यायी में लिख्' धातु से बने हुए शब्द स्पष्ट रीति से पाये जाते हैं । परन्तु संस्कृतज्ञता में प्रसिद्धि पानेवाले पश्चिमी विद्वान उनके अर्थ के सम्बन्ध में भी तरह बेतरह के कुतर्क करके यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनसे लिपि-कला का अस्तित्व नहीं साबित होता। हम इन विद्वानों पर यह दोष नहीं लगाते कि ये जान बूझ कर अर्थ का अनर्थ करना चाहते हैं। पर यह बात अवश्य है कि ये लोग कभी कभी ऐसी शङ्काये कर बैठते हैं जिनको सुनकर इस देश के वैदिक और लौकिक साहित्य के पण्डितों को हँसी आती है। सम्भव है, इस प्रकार का शङ्का-बाहुल्य पाश्चात्य पण्डितों की सूक्ष्मतर दृष्टि और विशेषतर पण्डिताई का फल है।
मनुस्मृति के दसवे अध्याय का पहला श्लोक यह है-
"अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः।
प्रव्रयाद, ब्राह्मणस्तेषां नेतरौ इति निश्चयः॥"
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्री और वैश्य तीनों वर्ण वेद पढ़ें, पर पढ़ावे सिर्फ ब्राह्मण । इसमें "अधीयीरन्" क्रिया का अर्थ है अध्ययन करें। और अध्ययन, अध्यापन आदि शब्दों से लिखी हुई पुस्तकों ही का पढ़ना पढ़ाना सूचित होता है। परन्तु मोक्ष-मूलर साहब इस अर्थ को नहीं मानते। वे इस तरह के पदों का अर्थ करते हैं-अधिगत करना, प्राप्त करना या पाना। अर्थात् उनके मत में मनुस्मृति में भी कहीं लिखने का ज़िक्र