न नेक पुकारो। सिवरिपुतिय जल जुत काहेते नेक न जात निहारो ॥ कलही पतिपितुसुता और रंग कोनो कहा सुनाऊ। बज़बीथिन में जे बृजबासी तिनै देष मुरझाऊ॥ सुरभीसुतसुत सुरभिन औरे हेरत हरष न पूरे। भूसुत सत्रु गेह गुन कासों कहे भरे अति भूरे ॥ चारी ओर व्यास षगपति के झुंड झुंड बहु आये। ते कुषेत बोलत सुनि सुनि के सकल अंग कुम्हिलाये॥ लै कर गेंद गये हैं षेलन लरिकन संग कन्हाई। यह अनु- मान गयो कालीतटसूर सांवरोमाई॥१०२॥ उक्त जसोदा की कै आज सारंग कमल पितु समुद्र सुत चंद्र धर शिव सुत षडानन बाहन मोर नाहीं बोलत है सिवरिपु जालंधर तिया बंदा जल बन वृंदावन काहे नाहीं निहारो जात कलहीपति सनि पितु सूर्य- सुता जमुना और ही रंग करे है सो का सुनाऊं अरु बृजगलीन में जे बृजवासी फिर रहे तिनै देष मुरझात अर्थ भयकारी देषि परत है सुरभी गौपुत्रन की ओर नाहीं देषत पुत्र गौ की ओर हरष ते पूर के भूसुत केवांच सत्रु बानर गेह वृक्ष ऐसे देष परत जो कहिवे जोग नाहीं है अर्थ उदास अरु चारो तरफ षगपति व्यास काग झुंड के झुंड आय कै कुषेत बोलत है सो सुनि सकल कुम्हिलात याते आज गेंद लै लरिकन संग कान गयो है सो यह अनुमान आवत के काली के तट गयो या पद में अनुमान अलंकार को नाम ॥ १०२ ॥
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