अंग अनंग उमंग ॥ करी छुआडू दई माथे उन इन लष सो पुनि कीनो। कुंती सुत पितु सन्मुष घर कर लाइ हिये में लीनो ॥ सूछम तें दुइ भाव एक कर बै रहे बाल अधीर ॥ सूरस्याम देषत अन देषत बनत न एको बीर ॥८२॥ (उक्त सषी की सपी प्रत कै हे सपी आजु वृषभाननंदनी सपिन के संग आवत रही) ग्रह अष्टम राहु में (नंदसुत मिल गयो अंग में अनंग की उमंग भरे सो कृष्ण ने) करी को नाम पुंडरीक सो छुवाइ दयो अर्थ हम तुम को नमसकार करत हैं तब कुंती पुत्र करन पिता सूर्य तिन के सनमुष घर नाम अयन भाषा में लघु दीरघ होत है ताते अयना सूर्य के सनमुष करि राधा हृदय सो लगायो अर्थ तुम हमारे हृदय में रहो अथवा दिन मुंदे मिलि हैं अथवा सूर्य सिव की संपत है हम को सुछम महीन ते दोहन के भाव को एक कर के अधीर हाई रही परंत स्याम न देषत वनैन अन- देषत बने है बीर या पद में सूछम अलंकार भाव संधि है लच्छन । दोहा-सूछुम पर आश्रय समुझ, करै क्रिया कछु भाव । दो भावन की संधि ते, भावसिंधु गुन गाव ॥१॥८२॥ हरि को अंतरिछ जब देषो। दिग्गज सहित अनूप राधिका उर तब धीरज लेषो॥ बहुत श्रेय पुन कुंत अग्र में नीतन सोरंग सारो। रेसम छद उर मूरष माला पछिन पीठ समारो॥ मासन में सिंगार रस सोभित तब मन जुक्त
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