L७५ ] पुत्र के कर अरु कमल जुदे करिबे को सांच चाहत है अर्थ वै मुदित होते हैं या पद में सूर ने बिसेष अलंकार पुत्ररति भाव धुन करि है लच्छन । दोहा-यहे बिसेष बिसेष जो, समुझे समता पाइ । पुत्र विषे रति होइ तो, भाव धुन ठहराइ ॥ १ ॥७९॥ आज गिर पूजन खाल चले। लै लै सिंधु संभुसुत अति प्रिय पावन मांठ भरे॥ नगरनीक औ काम बीचते गोग्रह अंत भरे । निकट बास परबत दाडिम जुत सोई रीत धरे ॥ नाचत गावत बाजत बाजन जाचत पुन्य प्रभाव । नंद आदि संग अति सुषपावत भावत जो जेहि लाव ॥ गूढोत्तर अस कहत ग्वालनी मोहि गेह रषवारी। राष गये सुन सूरस्याम मन बिहँस रहे गिर- धारी॥८॥ उक्ति कवि की (कै) आजु गिर गोवरधन (है ताके) पूजन (हेत) ग्वाल चले (लैलै के) सिंधु नाम दधि संभुसुत गणेश को प्रिय दूब अथवा मोदक माट (तामे) भरि के नगर नाम सहर नीक रस काम मदन मद्ध ते निकारे हरद भई गो ग्रह नाम बथान अंत नाम मरन मद्ध ते थार सोथार (भरे हरद ते थार भरे) मे हरद भरे निकट बास परोसी परवत नाम अचल दाडिम नाम अनार सोई रीत अर्थ मद्र (की) ते रोचना भयो सो लैलै कर गावत है नाचत हैं गावत बाजन बजावत हैं अपने पुन के प्रभाव जाचत है: नंदादिक संग
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