पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/७३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[ ७२ ] हारधार नीतन ते डारत हारत सब सुष हेर। बार बारझाकत जल अपनो सोवत झझकत फेर ॥ रबि पंचम पल होत नहीं थिर थकित भयो सब गात। धवल बसन मिल रहे अंग में सूर न नानी जात॥ ७६ ॥ उक्ति पुरवासिन की कै नंदनंदन की रीत सुनकर कंस राजा अपना क्रूरता छोड धरनी पर परो है द्वार नाम बार अरु बार नाम जल की धार नीतन नाम नैनन ते छांडत है अपने सुष हेर हारत है बारबार जल कहे द्वार अपनो झांकत है (अरु सावत में झझकत है) रबि ते पंचम वृहस्पत नाम जीव थिर नाही होत गात थकित भयो है सुपेत द्वै गयो है जामे कपडा जोपहिरे सो नाहीं जानो जात या पद में मीलित अलंकार भयानक रस है लच्छन । दोहा-मीलित जहां साहस ते, भेद न जानो जात । होत भयानक बिंग भय, ते सब जग बिष्यात ॥ १॥७६॥ जोर उतपल आदि उर तें निकस आयो कान। बीच निस को आदि अंगन लगो लेप समान ॥ बेदपाठी द्रगन सोई रीत के बहु छोट। रहे बिचबिच समुझ मोको परे नाही डोट ॥ बांसुरो तें जान मोको परोना सुत सोह। सूर उन मौलत निहारो कहें का मति भीड़ ॥७७॥