पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/७२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[७१ ] वाण संग जदपि जुदिष्टिर सत्तवकता सामुहे हैं अरु सिपाई बात सुनत तदपि अतदगुण अलंकार होइ रहे है रौद्र रस लच्छन । - दोहा-संगति गुन लागै नहीं, तहां अतदगुन होइ । थाई क्रोध विचार तौ, रौद्र कहै कवि लोइ ॥ १ ॥७॥ देषत सजी पंडकुमार।भयो सन्मुष पितामहि गहि धनुस औ सरधार ॥ लगे फरकन अंतरिछ अनप नीतन रंग। रिच्छ फरकत तेरहो कत सत्रु को सब संग ॥ बीत तनत कुबेर को पुन भान थान समान । तदिप सैनापति निहारत बढो धर्म प्रमान ॥ चलो रथ ले जिते आवत भीम आदिक सूर । सूर प्रभु को देषि अदभुत भयो है रन रूर ॥७॥ उक्ति संजय की आजु पंडुकुमार सजे देष के पितामही भिष्म सन- मुष भयो धनुष बान लै कै अंतरिछ अधर फरकन लगे (नीतन नयनन में अनूप रंग आयो तेरहै रिछ हस्त सो फरकन लगो) सत्रु की सेन तक के कुबेर को बित्त धनु तनन लगे भान नाम सारंग सारंग नाम भँवर भँवर नाम सिलीमुष बान को थान तनन लग्यो तदिप सैनापति जो धृतराष्ट्रदुमन है ताके संग जो सिपंडी ताको देष धरम सम्हारो जित भीय आदिक सूर आवत थे तित चलो सूर के प्रभु कृष्ण को देष और अदभुत-भयो इहां बीररस॥१॥७॥ सुन सुन नंदनंदन को रीत । भूपत कंस परोधरनीतल छाडि आपनी नीत ॥