पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/७०

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यह तदगुन अलंकार देष हे सजनी सब सषी मुसकानी अरु सूरस्याम को बुलावन लगी मेरी कही न मानी इहां तदगुन अलंकार हांसरस है लच्छन । दोहा-तदगुन तजगुण आपनो, संगत को गुन लेइ । हांस बिंग ते हांसरस, कहत सबै मिलि सेइ ॥१॥७२॥ कूदो कालीदह में कान । रोवत चली जसोदा मैया सुनन खाल मुष हान ॥ छूटे दिन टुआर के बैरो लटकत सो न सम्हारे । सूरजसुतरिपुसुत जे आदिक गिरत कौन तनधारे ॥ अंग संग बिर- हानल संग ते महास्याम सो भासै । बानरमित्र बैद सुत बातें सुनत रंग पर- गासै ॥ समुझावत सब पाछिल बातें तनक न मन में आवै । सूरस्याम सुत सुरत सम्हारत कालीदह को धावै॥७३॥ . उक्ति सषी की सपी प्रति (कै हे सषी आज कान कालीदह में गिरी है सुन के जसोदा रोवत चली) छूटे हैं दिन कहे (नाम) वार दरवाजे के बैरी पट लटकत सम्हार नाहीं सकत सूर्यसुत सुकंठ बैरी बाली सुत अंगद नाम भूषन जे छूटत ते को संभारे अंग अंग बिरहा की आग (अग्नि) ते कारो होत है बानर मित्र रिछ नाम नछत्र चौथो रोहिनी सुत (पुत्र) बलिभद्र तिनकी बात सुनत के फेर प्रकासत है यामें पूरब रूप पहिलो अरु पाछली बातें सब बतावत हैं की इन गिरधारी अग्निपान करे सो तिन को कछू न होहिंगे सो सुन नाहीं मानत कालीदह मो गिरो चाहत है या दूसरो पूरब रूप करुना रस लक्षण । दोहा—पूर्व रूप लै संग गुन, तजि फिर अपनो लेत ।