सं० पयोधर (: पयस पानी, वा दूध, घर रखनेवाला ; धृरखना) पु० गेध, बादल २ स्त्री की चूची ; स्तन ; ३ नारियल ; ४ गन्ना; ५ मुगंधित घास । शेष अर्थ पूर्ववत् । एक बात और ध्यान देने की है कि पं० महादेव पाठक सूर- सागर का टीका कोई नहीं देखे थे अनुमान से अर्थ लगाते थे। सारंग सम कर नीक नीक सम सारंग सरस बषाने । सारंग सब भय भय बस सारंगसारंगबिसमै माने ॥ सारंग हेरत उर सारंग ते सारंगसुत ढिग आवै। कुंती- सुत सुभाव चित समुझत सारंग जाइ मिलावै ॥ यह अदभुत कहिबे न जोग जुग देषतही बनि आवै । सूरदास चित समै समुझ करि विषई विषै मिलावै॥४॥ यह पद में उपमानो उपमेय अलंकार मध्या नाइका है ताको लच्छन । दोहा-उपमा लागत परसपर, उपमानो उपमेय । .. मध्या लाज मनोज सम, बरनत कवि रस भेय ॥ सारंग मृग समान ते नीक कहै अछ नेत्रन को माने है अरु नीक जे चच्छु हैं तिन को जो सारंग मृग है तिन के सम बषान कहत हैं काहे के सारंग जोराग (अनुराग) है ताके बसते तो भय बिसारत है अरु भय के बसते सारंग जो राग ताके बिसारत है सारंग मृग याते बिसमै माने है नेत्र जो है सो कैसे है कि सारंग कृष्ण तिनको देख करि उर जो सारंग कमल है ताते उतसाह होत सारंग सुत काजर लो. आवत है फिर कुंतीसुत करन सुभाव सषी तिन को समुझ के सो फेर उर समुद्र में मिल जात है यह अदभुत नेत्र मृगन को कहिबे जोग नाहीं है देषत बनत है सूरदास बिच मध्या समै समुझ के (बिषई नाम उपमान विर्षे नाम उपमेय) उपमानो उपमेय अलंकार ठहराक्त है ॥४॥ टिप्पणी-इस पद में सरदार कवि कुछ घट बढ़ नहीं अर्थ किया है एकाध स्थान पर जो है उसे परेन्थिस (चापावरण) में लिखा है।
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