कों आन । सूर प्रभु की बांसुरी में लेत भषन कान ॥ ७० ॥ उक्ति सषी प्रत नाइका की कै हे सषी बालम ने कौन बान सीपी है. सुतन कै हे निज तन में मोकों सकुच आवत है उनकी कहे बांकी ठान (तें देष) सुनत भाजन नाम घट दीप सम (समान लोकोक्त घट बढ घट बढ) संभुसुत गणेश भूषन चंद (ससी होत)सम (समान मेरो) बदन (बतावत है) रंग बद कुरंग (मृग के सदृश बतावत है) सम नीकन कहे अच्छन अंतरिछ अधर सिंधु सुत सुधासम (कहत है) राहु भष चंद बंधु संष सम (से) कपाल कहत हैं सारंग कोकिल सम (से)बैन (वचन) कहत है सो सुन सुन (मेरो)तान हृदय सुलगत है अरु जीवत हों यह जान को इतनी समुझ तो आई सूर प्रभु को बांसुरी में लेस अलंकार उग्रता संचारी ताकौं लच्छन ।
- दोहा-गुनह दोस है दोस गुन, लेस कहै कबि राइ ।
जग निंदन समस्थ चित, सो उग्रता गनाइ ॥ १ ॥७॥ - कत मी सुमन सो लपटात। समुझ मधकर परत नाहों मोहि तोरी बात ॥ हेमजूही है न जासंगरहे दिन पस्यात। कुमुदनी संग जाहु कर के केसरी को गात ॥ सेवती संतापदाता तुमै सब दिन होत । केतकी के अंग संगी रंग बदलत जोत ॥ हों भई कस हाइ समुझत विरह पीर पहार। सूर के प्रन करत मुद्रा कौन बिबिध बिचार ॥७॥ उक्ति नाइका की नायक प्रति हे भ्रमर मो सुमन मोगरी सो का