[ ६५ ] दोहा-अपसमार जो मूरछा, कहत सबै कवि लोइ । । सो विषाद चित चाह ते, उलटो जो कछु होइ ॥ १ ॥६॥ ला सोवत थी मैं, सजनी आज। तब लग सुपन एक यह देषो कहत अचंभी साज ॥ सिवभूषनरिपुभषसुत बैरी पित अरि केर सुभाव। आइ गई जहँ सुतसुत बैठी हँसत बढायो चाव ॥ हों चाहे तासो सब सीषय रसवस रिझवो कान । जागि उठी सुन सूरस्थाम संग का उल्लास बषान ॥ ६८ ॥ । उक्ति सषी से नायका की (कै हे सषी मैं आज सोवत रही तहां । एक अचंभे को सुम देषो) शिवभूषन चंद रिपु राहु भष सूर्य सुत करण रिपु अर्जुन पिता इंद्र अरि बलि सुभाव सषी एक सषी आई जहां सुतसुत । नंदनंदन बैठे रहे तासो मैं सब (रस की बात) सीपवे चाही तब लग जाग । ज्ठी इहां स्वामबोध संचारी उल्लास अलंकार है लच्छन । । दोहा-सपनो कहिए सोइबो, बोध जागो होइ । गुन औगुन जहं और को, है उल्लास सजाइ ॥ १॥६८॥ मऊधो तब ते अब अति नीको । लागत हमै स्याम सुंदर बिनु नाहिन बज अति फीको ॥ बायस सब्द अजा को मिलवन कीनो काम अनूप । सब दिन
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