पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/६५

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[ ६४ । लगी कमल पितु जल नाम कंपति भगनी ननद आदिबरण ते कान ते कान्ह की रात (करन लगी सपी मित) मित्र प्रथम प्रहरषन कान्ह की बात दुतिय पलक उधारों तौ सामुहे आवत में तृतिय सारंग राग के सुर उचारण लगे अथवा सारंग सूर्य नाम मित्र राग ललित आदि वरण तें मिल हम तुम मिले सारंग मृगनैनी हरष भरो सारंग वैन हो पिक बैन जलदी मिलो यामे ओतसुक संचारी लक्षन । दोहा-तीन महर्षण जतनते, बांछित फल जहँ होइ । बांछित हूं ते अधिक फल, दूजो कहिये सोइ ॥ १ ॥ स्रम विनु कारज सिद्ध सो, तीजो कहि कवि लोइ । डील सकेना सहि सुतो, औतसुक्क सुष भोइ ॥२॥६६॥ हों अलि केतने जतन बिचारों। वह मूरत वाके उर अंतर बसी कौन विध टारो॥ जब हों कहों लाज की बातें तब अति ब्याकुल होई। चंद चौथ निक- सत सो मोको जान परत बल सोई॥ सरमौतमजासतपित नाहों चलतहार चित हेरों। अपसमार जहँ सूर समारत बहु बिषाद उर पेरों ॥६७ ॥ उक्ति सपी की सपी प्रति (कै हे सषी वाकों मैं कैसे समझावों कौन जतन विचारों वाके उर में जो कान्ह की मूरत बसी सो कैसे टारों जब लाज की बात हों कहत तब बहुत व्याकुल होत) चंद ते (ऊंचो) चोथ वृहस्पत कहे (नाम जीव निकसत जान परत है) जीव सुरभी मौ तम मिलि गौतम भयो ताकी जा अंजनी सुत केसरीकिसोर पिता पवन अर्थात् वाके मुष ते स्वास नाहीं चलत अपसमारोग ते यह बिषाद अलंकार है अपसमार । संचारी बिषाद अलंकार लच्छन ।