[ ६३ ] तन को समुझ समुझ चित काढी ।। जगप्रिय घटे देष निज नैनन आपुन रंग बनावै। सूर ललित सब बात समझ को को कहि कहा रिझावै ॥६५॥ .. उक्ति सपी की कै तू मेरी कहीं नाहीं मानत कुमत ने जो प्रण नाधे सो नाहीं समझत दधिसुत कमल ताको सुत ब्रह्मा ताको सुत बसिष्ट तिन हित अग्न ताकी सेज बिछाइके अरु तापै पौढ अपनो भल चाहत है सो तोको को समुझावै ग्रह ९ नछत्र २७ वेद ४ सब मिल ४० के अर्द्ध बीस तें विष षात है अरु आपने तन की अमरता चाहत यह समुझ के काढी है जग प्रिय जीवन जल सो घट गयो आप आंषिन ते देषत तापर आप रंग सेत पुल बंधावत है ए बातें जो तू ललित समुझावत तो हे बल तौ तोको का सिषावै या पद में ललित अलंकार अमरप संचारी है ताको लच्छन । दोहा-ललित कहै कछु चाहिए, ताही को प्रतिबिंव । - अमरष को कहिये जहां, क्रोध अधिक नादंब ॥१॥६५॥ ॥ हों जल गई जमुना लेन। मदन रिस के आदि ते मिलमिली गुनगन ऐन ॥ कहन लागी कमलपितुपति भगीनि की सब बात। पलक नेक उघार देषत आय सुंदर गात ॥ सुरन सारंग के सम्हारत सरस सारंग नैन । सूरदास प्रहर्षना सहि सुरुच सारंग बैन ॥६६॥ उक्ति नायका की सपी प्रत हों आज जमुनाजल लेन गई रही मदन समर रिस पीस आदि तें (सपी तव ले मिली) मिल सपी मिली तब कहन
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