1 ५० । दोहा-करि बिसेष सामान्य मे, है अर्थातर न्यास । चित में आनंद को उमग, कहत हरष परमास ॥ १ ॥१॥ - सिवभष ग्रह सारंग सी जोत । कहत सदा याही विध प्रतिदिन पिय मन सकुच न होत ॥ दधितमु में दधि तिय दीपत सी मृदु मुष ते मुसुकात । सुंदर आषर नग प्रै नगपति घन कहि लजत न गात ॥ सुनि सुनि प्रौढ उक्ति अस उन की मन की कही न जात। मूरस्याम को को समुझावै तो बिन ललिता बात ॥ ६२ ॥ उक्ति नायका की शिवभष कनक सारंग दीप सी तेरे तन की जोत है या विध पिय कहत सकुचत नाहीं है दधिसुत चंद में दधि तिया गंगा- जल के सी दीपति मेरी मुसकान बतावत है सुंदर आपर सुबरन नागा गिर पै नगपति महादेव से कुच कहत है ऐसी प्रौढ़ उक्ति उन की सुन के मो पर अपने मन की नाहीं कही जात सो हे ललिता तो बिन या बात उन कों को समुझावै जासें ऐसी अनुचित न कहै यामें प्रौढोक्ति अलंकार गर्भ संचारी लच्छन । दोहा-करि अहेत को हेत जह, तह प्रौढोक्ति प्रमान । है सब तें सब विध सरस, यहै गर्भ की पान ॥१॥६२॥ । फल सूचक का कहिके जैये। जो यह बिपति परी तन उपर सो का कहि
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