पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/५६

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[ ५५ ] "उक्ति सषी की सपी से द्रग नाम लोयन लोइन नाम पक्षी मैना ताकी जा पारबती पति संकर पतनी गंगा पति समुद्र सुत ससि ताके देषत नायक की सुष आई ताते मुरझानी (मुरझा गई) तातें उठि उठि धरनी पै परत है मंदिर में अयानी हो रही है सारंग पपीहा के बचन सुन पन उठत है जब बोलत है की पिय आए तब जीवन आस होत है भूतनया जानकी रिपु जयंत पिता इंद्र सैना मेघ संगिन बिजुरी की गति हो रही है अर्थ चमकत है सो मै कासे कहों यह समूचे अलंकार सुमिरन संचारी कर रही है लच्छन । दोहा-एक संग में भाव बहु, कहै समूचैः सोइ । मल सुध तें सुमिरन जानिये, सुकबि सराहत सोइ ॥१॥५५॥ - बोल न बोलिये बुजचंद। कोन है संतोष सब मिलि जानि आप अनंद ॥ कहै सारंग सुत बदन सुनि रही नीचे हेर । निरषि सारंग बदन सारंग सुमुष सुंदर फेर ॥गहत सारंगरिपु सुसारंग दियो सारंग सीस। कियो भूषन पुत्र सारंग संग सारंग दीस ॥ उदै सारंग जान सारंग गयो अपने देस । सूरस्याम सुजान संग व चली बिगत कलेस ॥५६॥ उक्ति नायका की नायक प्रति कै हे वृजचंद हम से मत बोलो आप को आनंद देष सब ने संतोष कियो है यह सुनि नायक कही की सारंग समुद्र सुत चंद बदन सो सुन नीचे हेरन लगी सारंग कमल बदन सारंग कृष्ण को देषि मुष फेर लियो सारंग रिपु पट जब पकरो तब आप सारंग कमल कर सारंग संभु कुचन पर धर राषी सो भूषन अलंकार सारंग दीप ताको पुत्र काजर अरु सारंग दीपक कीनो अर्थ कारक दीपक